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भीलवाड़ा में वाणीजी की थाल के साथ शुरू होता है शाहपुरा का फूलडोल मेला

धुलण्डी के दिन रामद्वारा से वाणीजी की थाल निकलती तो शाहपुरा में फूलडोल शुरू होता है

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रामस्नेही सम्प्रदाय के संस्थापक स्वामी रामचरण ने कोठारी नदी स्थित कुवाड़ा की चट्टान पर जलमग्न होकर ध्यान साधना की थी। संवत 1825 तक कुवाड़ा में रहने के बाद शाहपुरा चले गए। आज यहां कुवाड़ा धाम है, जहां लोग मन की शान्ति के लिए साधना तथा चट्टान के दर्शन करने आते हैं।

भीलवाड़ा।
रामस्नेही सम्प्रदाय के संस्थापक स्वामी रामचरण ने कोठारी नदी स्थित कुवाड़ा की चट्टान पर जलमग्न होकर ध्यान साधना की थी। संवत 1825 तक कुवाड़ा में रहने के बाद शाहपुरा चले गए। आज यहां कुवाड़ा धाम है, जहां लोग मन की शान्ति के लिए साधना तथा चट्टान के दर्शन करने आते हैं। रामचरण संवत 1817 में शाहपुरा से दांतड़ा होते भीलवाड़ा आए थे। वे आते ही मियाचंदजी की बावड़ी की गुफा में भजन एवं रामनाम का सुमिरन करने लगे थे। इस दौरान कई शिष्य बने। जिन्हें रामस्नेही पुकारा जाने लगा। यहीं से रामस्नेही सम्प्रदाय की शुरुआत हुई।

स्वामी यहां से भ्रमण करते माणिक्यनगर पहुंचे जहां बावड़ी स्थित गुफा में साधना में लीन हो गए। महाराज को देखकर देवकरण तोषनीवाल ने बावड़ी सहित अन्य जमीन को भेंट कर दी। संवत 1822 में यहां रामद्वारा निर्माण शुरू हुआ।फूलडोल मनाने की परम्परा भीलवाड़ा में शुरू हुई। करीब चार साल तक भीलवाड़ा में फूलडोल मनाने के बाद महाराज शाहपुरा चले गए। 1826 से शाहपुरा में फूलडोल मनाने की परम्परा शुरू हुई जो आज भी जारी है।


खास बात यह है कि धुलण्डी के दिन रामद्वारा से वाणीजी की थाल निकलती तो शाहपुरा में फूलडोल शुरू होता है। स्वामी रामचरण के शिष्य देवकरण, कुशलराम नवलराम ने होली पर प्रहलाद कथा का अनुरोध किया। इस दौरान फूलों की बारिश होने लगी। इस पर इस आयोजन का नाम फूलडोल पड़ा। इसके बाद से यह परम्परा बन गई।


इन स्थानों पर भी फूलडोल
पहला फूलडोल भीलवाड़ा तथा तीन फूलडोल उदयपुर में हुए। उदयपुर महाराणा के अनुरोध पर संवत 1876 में दूल्हेराम ने उदयपुर में फूलडोल मनाया। महाराणा शंभूसिंह के अनुरोध पर संवत 1930 में हिम्मतराम महाराज ने गुलाबबाग उदयपुर में फूलडोल मनाया। महाराणा भोपाल सिंह के अनुरोध पर संवत 1993 में महाराज निर्भयराम ने उदयपुर में फूलडोल मनाया। इस दौरान शाहपुरा में एक दिन का फूलडोल मनाया गया।


नदी के बीच की थी साधना
रामद्वारा के भण्डारी अजबराम महाराज ने बताया कि संवत 1825 में कोठारी नदी तेज गति से बह रही थी तभी स्वमी नदी के बीच स्थित चट्टान पर बैठ साधना करने लगे। करीब 12 दिन तक नदी उफान पर थी। लेकिन उनकी साधना अनवरत चलती रही थी। स्वामी का जन्म माध शुक्ला 14 शनिवार संवत 1776 को मालपुरा के सोड़ा ग्राम में हुआ था। संवत 1808 भाद्र शुक्ला 7 गुरुवार को स्वामी कृपाराम महाराज ने दीक्षित किया था।


अधजली कम्बल
रामद्वारा के सदस्य रमेश राठी ने बताया कि स्वामी वैशाख कृष्णा पंचमी संवत 1855 में शाहपुरा में ब्रह्मलीन हो गए थे। उस समय उनके होट हिल रहे थे इससे राम नाम की ध्वनी का आभास हो रहा था। अन्तिम संस्कार छतरी के पास किया था। देह पर लिपटा कम्बल राख में सुरक्षित निकला। वह आज भी रामद्वारा में सुरक्षित पड़ा है। जिसके दर्शन वर्ष में एक बार धुलण्डी के दिन होते है। बारादरी में महाराज की गद्दी व वाणीजी रखी है। जिनके सामने ही लोग धर्मलाभ लेते है।