भीलवाड़ा. राजस्थान के भीलवाड़ा शहर में एक ऐसा स्थान है जहां पिछले 55 साल से अनवरत हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण, कृष्ण, हरे हरे-हरे राम- हरे राम राम राम हरे हरे का कीर्तन चल रहा है। इसकी गूंज सुबह व शाम को आस-पास के क्षेत्र में सुनाई देती है। यह कीर्तन सीताराम जी की बावड़ी में चल रहा है। कीर्तन के लिए 15 से 20 साधक लगे हैं। पाठ 24 घंटे चलता है। तीन-तीन घंटे के रूप में चलता है। प्रमुख रुप से सुबह 6 से 9 बजे व शाम को 6 से 9 बजे तक वाद्य यंत्रों के साथ कीर्तन होता है। दोपहर में 3 से 4 बजे तक ओम नम: शिवाय का पाठ होता है।
कीर्तन प्रभारी मनीष सोनी ने बताया कि सीताराम सत्संग भवन में 55 साल से अखण्ड कीर्तन हो रहा है। पहले तीन-तीन लोग बैठकर पाठ करते थे। अब खड़े होकर परिक्रमा के रूप में पाठ होता है। मुख्य पुजारी रमेश शर्मा कहते कि पाठ करने वाले हर व्यक्ति को 280 रुपए प्रतिदिन के देते हैं। खाना, रहना व अन्य सुविधा भी मिलती है। भवन में राम दरबार, पंचमुखी दरबार, रामकृष्ण, रामचरणजी की तस्वीर, गणेशजी, संतोषीमाता गायत्री माता की प्रतिमा है। सीताराम ट्स्ट के अध्यक्ष संगम ग्रुप के चेयरमैन रामपाल सोनी व मंत्री राजेश लोढ़ा है।
1915 में बना था सत्संग भवन
सीतारामदास महाराज ने यह स्थल देखने के बाद तोषनीवाल परिवार को बुलाया। यहां पर सत्संग भवन बनाने की बात कही। चार भाई कन्हैयालाल, रंगलाल, मथुरालाल तथा मोतीराम तोषनीवाल ने मिलकर सत्संग भवन 1915 में बनवाया। जिसे सीताराम सत्संग भवन के नाम से जाना जाता है। इस भवन के नीचे एक बावड़ी है। बावड़ी की सफाई कराने के बाद यहां जाली लगा दी गई। दरवाजे पर ताले लगा दिए। बावड़ी में साफ पानी है। बावड़ी की देखरेख के लिए तोषनीवाल परिवार दो से तीन घंटे देते है। बावड़ी को मियाचन्द जी की बावड़ी या सीताराम जी की बावड़ी के नाम से भी जानते हैं। महाराज का ऋषिकेष में लक्ष्मण कुंड के पास समाधि स्थल बना हुआ है।
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यह है इसका इतिहास
मियाचन्दजी की बावड़ी 280 साल पुरानी है। रामस्नेही सम्प्रदाय के संस्थापक रामचरण महाराज ने बावड़ी की गुफा में तपस्या की थी। यह सबसे प्राचीन धरोहर है। इसका निर्माण सम्वत 1800 के आस-पास साहूकार मियाचन्द तोषनीवाल ने किया था। सीताराम सत्संग ट्रस्ट के कोषाध्यक्ष लक्ष्मीनारायण तोषनीवाल का कहना है कि बावड़ी के निर्माण के करीब 12 साल बाद 1812 में रामस्नेही सम्प्रदाय के रामचरण महाराज यहां आए थे। उन्होंने ध्यान लगाकर पता लगाया कि बावड़ी के अन्दर गुफा है। वे इसमें बैठकर ध्यान लगाते थे। जब भी बाहर आते तो अपने भक्तों को अनुभव लिखने को कहते थे। धीरे-धीरे वाणी की रचना पूरी होने के बाद उसे अणभैवाणी का नाम देकर लोगों को समर्पित कर दी। बाद में वे कोठारी नदी के दक्षिणी तट पर शिला पर बैठकर तपस्या करने लगे। यह शिला सिद्ध शिला के रूप में प्रसिद्ध है।