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21वीं सदी में भी स्त्रियों के प्रति नहीं बदली पुरुषों की मानसिकता, मन की खूबसूरती अहम नहीं

रवीन्द्र भवन में नाटक 'रसिक संपादक' का मंचन

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21वीं सदी में भी स्त्रियों के प्रति नहीं बदली पुरुषों की मानसिकता, मन की खूबसूरती अहम नहीं

21वीं सदी में भी स्त्रियों के प्रति नहीं बदली पुरुषों की मानसिकता, मन की खूबसूरती अहम नहीं

भोपाल। रवींद्र भवन में चल रहे अर्जुन सिंह रंगोत्सव में शनिवार को मुंशी प्रेमचंद की लिखी कहानी पर नाटक 'रसिक संपादक' का मंचन किया गया। कहानी का नाट्य अनुवाद और निर्देशन वीणा शर्मा ने किया है। एक घंटे बीस मिनट के इस नाटक में दिल्ली के रंग विशारद थिएटर क्लब के 12 कलाकारों ने प्रस्तुति दी। नाटक का यह 37वां शो है। व्यंग्य और हास्य कहानी के माध्यम से रसिक संपादक ने उस सोच को दर्शाया है जिसमें 21वीं सदी में भी स्त्रियों के प्रति, उनकी खूबसूरती के प्रति पुरुष की मानसिकता को दिखाया गया है। आज भी स्त्री के तन की खूबसूरती ही देखी जाती है, न की मन की। जब तक महिलाओं के प्रति सोच नहीं बदलेगी तब तक समाज में उन्हें कहीं न कहीं परेशानियों का सामना करते रहना पड़ेगा।

जैसे ही कोई सुंदर महिला सामने आती है, उसका रसिकपन फिर जाग उठता है
नाटक मुख्य रूप से नव रस पत्रिका के संपादक चोखेलाल की रसिक मिजाजी पर आधारित है। चोखेलाल विदुर है और स्वभाव से रसिक। अपनी पत्रिका में कविताओं का चयन इस आधार पर नहीं करता है कि वह रचना कितनी अच्छी और रचनात्मक है। वह चयन के लिए यह सुनिश्चित करता है कि वह रचना किसी महिला ने लिखी हो। यदि गलती से किसी पुरुष की कोई रचना आ जाती है तो वह उसे बिना पढ़े ही फेंक देता है। इसी तरह एक दिन कामाक्षी नाम की लड़की की कविता आती है लेकिन कविता बहुत खराब होती है। संपादक कामाक्षी के बारे में सोचकर कल्पना लोक में खो जाता है। जब उसका सपना टूटता है तो वह कमाक्षी से रू-ब-रू होता है। कामाक्षी का रंग सांवला होता है। वह कमाक्षी से तौबा करते हुए किसी तरह पीछा छुड़ाने में जुट जाता है। इधर, कामाक्षी उसे पसंद कर लेती है। चोखेलाल अपने रसिकपन स्वभाव से तौबा करता है। लेकिन जैसे ही कोई सुंदर महिला सामने आती है। उसका रसिकपन फिर जाग उठता है।