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विशेष टिप्पणी : जितेन्द्र चौरसिया
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करीब 16 साल पहले एक और प्रिंस बोरवेल में गिरा था। तब वाक्या जुलाई 2006 में हरियाणा के कुरूक्षेत्र में चार साल के प्रिंस के बोरवेल के गड्डे में गिरने का था। बोरवेल में गिरने की घटना के राष्ट्रीय पटल पर छाने का संभवत: ये पहला मामला था। उसके बाद कई बच्चों के देश के अलग-अलग हिस्सों में बोरवेल में गिरने के हादसे होते रहे। मध्यप्रदेश में भी ऐसे कई हादसे हुए। प्रदेश में ये भी तय हुआ कि ऐसे बोरवेल के मुंह खुले छोडऩे पर कार्रवाई होगी। तमाम नियम-कायदों के दावे हुए, लेकिन अब फिर दमोह में एक प्रिंस बोरवेल के गड्डे में गिरा। छह घंटे की मशक्कत के बाद वह बाहर आ सका, लेकिन उसकी सांसे नहीं आ सकी।
पिछली बार 4 साल का प्रिंस खुशकिस्मत था, जो 50 घंटे बाद भी जिंदा बाहर आ सका। इस बार 3 साल का प्रिंस वैसा खुशकिस्मत नहीं रहा। इन 16 सालों में न हमारी लापरवाही बदली और न हमारे सिस्टम की बेहयाई। बदला है तो सिर्फ इतना कि अब बोरवेल में गिरे बच्चों को निकालने की तकनीक अपडेट हो गई हैं, हम इसके अभ्यस्त हो गए हैं। सिस्टम जल्दी रिस्पांस करता है और ऐसी घटनाएं उतना दिल नहीं दहलाती जैसा पहले होता था। बाकी खुले बोरवेल के मुंह अब भी हमें पहले जैसी बेशर्मी से ही चिढ़ाते हैं या यूं कहे कि उससे भी ज्यादा ढ़ीढपना हावी हो चला है। आखिर इसका जिम्मेदार कौन है? पहले तो वो पालक या माता-पिता जिनकी जिम्मेदारी बच्चे की देख-रेख की है, लेकिन उनकी स्थिति-परिस्थिति वो जाने। तो क्या सिस्टम जो बोरवेल खुले होने पर आंखें मंूदे नियमों को थामे बस बैठा रहता है या फिर वो जिम्मेदार जो ऐसी घटनाएं सामने आने के बाद भी कार्रवाई नहीं करते। देखा जाए तो कहीं न कहीं जिम्मेदारी इन सभी की है। ऐसे न जाने कितने प्रिंस हैं, जो इन बोरवेल के अंधेरे में समा गए और न जाने कितनों की किस्मत में और ऐसा लिखा है। लेकिन, ये भी सच है कि इस तरह की घटनाओं को रोका जा सकता है। गांव हो या शहर, खेत-खलियान या फिर दूसरे इलाके हर जगह बोरवेल के ऐसे खुले मुंह को लेकर सख्त कार्रवाई की मिसालें यदि सामने आई, तो ऐसी घटनाओं पर काफी हद तक अंकुश लग सकता है। इसलिए ऐसे मामलों में सख्त और मिसाल देने वाली कार्रवाई की जरूरत है।
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Published on:
27 Feb 2022 10:06 pm
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