
भोपाल। आमतौर पर दर्द की आवाज पर मरहम मिल ही जाती है, लेकिन उनका क्या जो अपना दर्द भी बयां नहीं कर पाते। हर कदम पर बेबसी का सामना और सामने घोर अंधेरा...उम्र के हर मोड़ पर धोखे खाने के बाद जब अपने पैरों पर खड़ा होने का समय आता है तो बेरोजगारी से सामना। जी हां... हम बात कर रहे हैं मूक-बधिर की, जिनके लिए आज नौकरी करना भी आसान नहीं है। निजी हो या सरकारी, नौकरी इनके लिए दूर की कौड़ी ही है।
जिंदगीभर शोषण और संघर्ष
यह कहानी है करीब 20 वर्षों से शोषण और संघर्ष का सामना करने वाली धनेश्वरी (परिवर्तित नाम) की। होशंगाबाद में रेल की पटरी के पास लावारिस मिली थी तो जीआरपी ने मूक-बधिर संस्थान पहुंचा दिया। 2003 में जब यह करीब पांच साल की हुई तो यौन शोषण का शिकार हो गई। संस्था का संचालक भोपाल से आकर सप्ताह में तीन दिन शोषण करने लगा।
करीब 10 साल इसने दर्द सहा, फिर दोस्तों और अन्य लोगों को इसके बारे में बताया। मदद मिलने से पहले ही इसे संस्था के भोपाल सेंटर में शिफ्ट कर दिया गया, फिर यहां वही हाल। 2017-18 में फिर इसने अपना दर्द बयां किया। मामला उजागर हुआ तो संचालक को तो जेल हो गई, लेकिन इसकी परीक्षा खत्म नहीं हुई।
अब शुरू होती है छत और जीवन-यापन के लिए संघर्ष। इस बीच दूसरी मददगार संस्था ने एक अन्य मूक-बधिर से विवाह करवा दिया, लेकिन जीवन-यापन की समस्या जस की तस है। अपने सांकेतिक भाषा में इसका यही कहना था कि अगर सरकार इनके लिए रोजगार उपलब्ध करा दे, तो इनके दर्द पर भी मरहम लग जाएगा।
(बेबसी की यह कहानी तो नजीर है, क्योंकि प्रदेश में ऐसे कई मामले हैं जिसमें बेजुबां दर्द सहने को मजबूर हैं।)
2 साल से भर्ती नहीं
सरकारी नौकरी में इनके लिए एक प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान है, लेकिन पद अभी नहीं निकल पाए हैं। दो साल से कोई भर्ती नहीं हुई है।
थ्योरी पड़ती भारी
सरकारी नौकरी के लिए मूक-बधिरों को थ्योरी के पेपर भारी पड़ते हैं। विशेषज्ञ ज्ञानेंद्र पुरोहित का कहना है कि सीपीसीटी में थ्योरी के पेपर में इन्हें छूट दी जानी चाहिए।
ऐसी है स्थिति
सूबे में जनगणना 2011 के हिसाब से एक प्रतिशत के मापदंड पर करीब डेढ़ लाख मूक-बधिर हैं। हालांकि इतने मूक-बधिर रजिस्टर्ड नहीं हैं।
Published on:
26 Sept 2022 01:45 am
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