भारत की स्वंतत्रता सभी के समान्वित प्रयासों का परिणाम है। अंग्रेजों की भारत पर शासन स्थापना के समय से ही उनके विरूद्ध संघर्ष और आन्दोलन की एक वृहद् श्रृखंला प्रारंभ हो गई थी। जो 1857 के क्रांति संघर्ष में अपने संगठित रूप में प्रकट हुई और आगे विभिन्न चरणों से होते हुए 15 अगस्त 1947 को अपनी परिणति पर पंहुचे। भारत को स्वंतत्रता प्राप्त हुई। वीर सावरकर वो प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने 1857 के संघर्ष को भारत का प्रथम स्वंतत्रता संग्राम कहकर संबोधित किया। वे पहले ऐसे क्रांतिकारी थे, जिन्हें अंग्रेजी शासन ने 25-25 साल के दो कालापानी की सजा सुनाई। वीर सावरकर ने 1911 में जो अपनी रिहाई की मांग की, वह राज्यबंदियों के लिए निर्धारित प्रक्रिया के तहत की गई। ऐसी मांग मात्र सावरकर ने ही नहीं अपितु उस समय के अन्य वीर पुरुषों की ओर से भी की गई थी। जिनमें मोतीलाल नेहरू व अन्य का भी नाम आता है। तो क्या हम उनको स्वंतत्रता का नायक मानने से मना कर देंगे। 1911 से 1919 तक प्रक्रिया चलती रही। फिर 1920 में महात्मा गांधी के सुझाव पर वीर सावरकर की ओर से अपनी रिहाई के लिए याचना प्रस्तुत की गई। जिसका उल्लेख स्वयं महात्मा गांधी के यंग इंडिया के लेखों में मिलता है।
वस्तुत: प्रथम विश्व युद्ध के बाद अंग्रेजी शासन की ओर से भारतीयों के योगदान की सराहना करते हुए राजनीतिक बंदियों को रिहा करके की उदारवादी नीति अपनाई गई। परन्तु उन राजनीतिक बंदियों की रिहाई में जब वीर सावरकर और उनके भाई गणेश सावरकर का नाम नहीं आता तो वीर सावरकर के छोटे भाई नारायणराव सावरकर महात्मा गांधी को पत्र लिखते है। जिसके प्रतिउत्तर मे गांधीजी रिहाई के लिए याचना प्रस्तुत करने की सलाह देते हैं।
इस सबके मध्य वीर सावरकर के व्यक्तित्व के कुछ अन्य पहलू भी हैं, जिनका विश्लेषण करना यहां समीचीन प्रतीत होता है। वस्तुत: जेल में बिताए कार्यकाल में वीर सावरकर को आभास होता है कि भारतीय समाज में बहुत असामनता है। हिन्दू समाज विभिन्न जातियों में बंटा हुआ है। समाज में ऊंच-नीच और छूआ-छूत की भावना प्रबल है। जिसे दूर करने के लिए कार्य करने की आवश्यकता है।
6 जनवरी 1924 को सावरकर को जेल से मुक्ति मिलती है, लेकिन 10 मई 1937 तक उन्हें रत्नागिरि में नजरबंद रखा जाता है। जेल के जीवन के बाद वीर सावरकर की ओर से सामाजिक समरसता व समानता के लिए जो कार्य किए गए वे भारत को महान बनाने की ओर अग्रसित करने वाले हैं। वीर सावरकर ने जाति प्रथा एवं अस्पृश्यता, छूआ-छूत के विरूद्ध एक अभियान चलाया। उनका मत था कि प्रत्येक सच्चे भारतीय को सात बेडिय़ों से मुक्त होना होगा। ये सात बेडिय़ां थीं, वेदोक्तबंदी अर्थात वैदिक साहित्य को चंद लोगों के लिए सीमित रखना, व्यवसायबंदी अर्थात किसी समुदाय विशेष में जन्म के कारण उस समुदाय के पारम्परिक व्यवसाय को जारी रखने की बाध्यता, स्पर्शबंदी अर्थात अछूत प्रथा, समुद्रबंदी अर्थात समुद्री मार्ग से विदेश जाने पर प्रतिबंध, शुद्धिबंदी अर्थात हिन्दू धर्म में पुन: लौटने पर रोक, रोटीबंदी अर्थात दूसरी जाति के लोगों के साथ खानपान पर प्रतिबंध और बेटीबंदी अर्थात अन्तरजातीय विवाह समाप्त कराने संबंधी अडचनें।
इन सभी सुधारवादी विचारों को स्वंतत्रता प्राप्ति के पश्चात भारतीय संविधान में शामिल किया गया। वर्ष 1929 में वीर सावरकर ने विठ्ठल मंदिर के गर्भगृह में अछूतों को प्रवेश दिलाने में सफलता प्राप्त की। 1931 में उनके द्वारा स्थापित पतित पावन मंदिर एक ऐसे केन्द्र के रूप में स्थापित हुआ, जहां निम्न जाति के बच्चों को वैदिक ऋचाओं का पाठ सिखाया जाता था। इस मंदिर में विष्णु की मूर्ति का अभिषेक भी इन्हीं बच्चों के मंत्रोच्चार से कराया जाता था। वीर सावरकर द्वारा एक ऐसा रेस्तरां भी खोला गया जहां अपृश्य जाति के लोग भोजन परोसने का कार्य करते थे। वीर सावरकर की ओर से हिन्दुओं को सेना में भर्ती होने के लिए भी प्रोत्साहित किया गया।
स्वंतत्रता आन्दोलन