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सियासी सालः छत्तीसगढ़ में तीसरी ताकतों के लिए पर्याप्त जगह, 25 फीसदी मतों पर जमा लेती हैं कब्जा

हर चुनाव में उभरती है कोई एक तीसरी ताकत, 2003 में एनसीपी और बसपा, 2008 में बसपा, 2013 में स्वाभिमान मंच

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बरुण सखाजी. बिलासपुर

छत्तीसगढ़ में चुनावी ट्रेंड भले ही दो दलों के इर्द-गिर्द घूमता नजर आता हो, लेकिन साल 2003 से लेकर 2013 तक के तीनों चुनावों के आंकड़ों के मुताबिक यहां तीसरी ताकत के लिए पर्याप्त स्पेस है। उत्तरी छत्तीसगढ़ में जहां पहले चुनाव में एनसीपी और जीजीपी ने जोर मारा था, तो वहीं दक्षिणी छत्तीसगढ़ यानी बस्तर इलाके में वाम दलों का जोर रहा है। मैदानी और मध्य छत्तीसगढ़ को पूर्वी इलाके में स्वतंत्र उम्मीदवारों ने अच्छी भूमिका निभाई तो वहीं मध्य-पश्चिमी छत्तीसगढ़ में दो पार्टियों का सिस्टम पहले चुनाव में तो कामयाब रहा, लेकिन 2008 आते तक यहां भी तीसरी ताकत ने दखल शुरू कर दिया। इनमें सबसे आगे रही बसपा।

हर चुनाव में करती रही है कोई न कोई तीसरी ताकत प्रभावित

छत्तीसगढ़ के अब तक हुए तीन विधानसभा चुनावों में हर बार कोई न कोई एक नया दल सामने आया है। यहां पर भाजपा-कांग्रेस के बीच कांटे की टक्कर के बीच तीसरी ताकत अलग-अलग सीटों में 25 फीसदी तक मत हासिल करती रही हैं। इन तीसरी ताकतों में जहां राष्ट्रीय पार्टियां शामिल हैं तो वहीं राज्य स्तर की पार्टी और निर्दलीय उम्मीदवार भी शामिल हैं।

2003 में एनसीपी ने मारा था जोर

छत्तीसगढ़ राज्य गठन के बाद पहली बार हुए 2003 के आम चुनावों में शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) ने अच्छा परफॉर्म किया था। इसकी एक सीट उत्तरी छत्तीसगढ़ से यह जीतने में भी कामयाब रही थी। वहीं कुछेक सीटों पर सम्मानजनक मत प्रतिशत भी हासिल किया था। साल 2003 के चुनावों में एनसीपी को विद्याचरण शुक्ल का साथ मिला था। इन चुनाव में पार्टी एक सीट जीती थी तो वहीं मत प्रतिशत के मामले में भाजपा-कांग्रेस के बाद नंबर-3 पर रही थी। पार्टी को साल 2003 में एक सीट के साथ 7.09 फीसदी मत मिले थे। हालांकि पार्टी ने 89 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे, जिनमें से 84 जमानत नहीं बचा पाए थे।

2003 में बसपा रही थी चौथी बड़ी पार्टी

मायावती की बसपा ने साल 2003 में मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ दोनों में ही अच्छा प्रदर्शन किया था। पार्टी ने छत्तीसगढ़ में 54 सीटों पर चुनाव लड़ा जिनमें 2 जीतने में कामयाब रही, जबकि 46 पर जमानत नहीं बचा पाई। लेकिन इस सबके बाद भी पार्टी ने 6.94 फीसदी मत हासिल किए थे। ऐसा माना जाता है कि बसपा का राज्य की जांजगीर, बलौदाबाजार और रायपुर जिले की कुछ सीटों पर पैक्ड वोटर है। इनमें से रायपुर, बलौदाबाजार में पार्टी अच्छा प्रदर्शन करती है, लेकिन जीतती नहीं, जबकि जांजगीर में वह जीतती रही है।

वाम दल जीतते नहीं, पर 9 फीसदी तक दखल

वाम दलों में सीपीआई, सीपीएम राज्य की सक्रिय राजनीति में असर रखती हैं। लेकिन यह पार्टियां कभी एक होकर नहीं लड़ती। इनकी कोर ताकत बस्तर में है। दोनों पार्टियों ने साल 2003 के चुनाव में करीब साढ़े 9 फीसदी तक मत हासिल किए थे।

जीजीपी सीट कभी नहीं जीती, पर साढ़े 3 फीसदी तक मत किए हासिल

गुलजार मरकाम के नेतृत्व वाली गोंडवाना गणतंत्र पार्टी (जीजीपी) ने राज्य में कभी सीट नहीं जीती, लेकिन कोरबा जिले को सीटों पर अच्छा दखल रखती है। पार्टी ने कोरिया में भी अच्छा प्रदर्शन किया है। साल 2003, साल 2008 और साल 2013 के चुनावों में पार्टी ने औसतन 3 फीसदी तक मत हासिल किए हैं। हालांकि 2013 तक आते-आते पार्टी का जनाधार बहुत हद तक सिमट गया। पार्टी एसटी वर्ग की राजनीति करती है। राज्य में 44 सीटें एसटी और एसटी के लिए आरक्षित हैं।

2013 में नोटा ने छीन ली तीसरी ताकतों की बादशाहत

साल 2013 के चुनावों में नन ऑफ द अबव (नोटा) पहली बार इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएएम) का हिस्सा बना था। इस दौरान छत्तीसगढ़ में यह तीसरे स्थान पर रहने में कामयाब रहा। नोटा की खासियत यह रही कि राज्य की 90 सीटों में से अधिकतर पर यह नंबर-3 पर रहा तो वहीं कइयों पर 4 और 5 पर रहा है। ऐसी इक्का-दुक्का सीटें ही हैं, जहां नोटा नंबर-7 तक गया है। साल 2013 के चुनावों में नोटा को 3.7 फीसदी लोगों ने इस्तेमाल किया। यह जनसंख्या में अगर बदलें तो करीब 4 लाख लोगों ने नोटा दबाया था। यानी 2 विधानसभा की मतदाता संख्या के बराबर लोगों ने नोटा के जरिए सभी दलों को खारिज किया था।

2013 में स्वभिमान मंच ने किया था प्रभावित

छत्तीसगढ़ के अब तक हुए 3 चुनावों में हर बार कोई न कोई तीसरी ताकत के रूप में उभरा है। यहां निर्दलीय के जीतने के तो ज्यादा आसार नहीं होते, हालांकि 2013 में 1 निर्दलीय भी जीते हैं, जो अब भाजपा में हैं। लेकिन पार्टियों के स्तर पर हर साल एक नई पार्टी तीसरी ताकत बनती है। साल 2003 में एनसीपी और बसपा ने तीसरी ताकत की भूमिका निभाई थी। साल 2008 में एनसीपी फलक से गायब होकर बसपा आगे आ गई साथ में जीजीपी ने सीटें नहीं जीती, मगर मत अच्छे हासिल किए। वहीं साल 2013 में भाजपा से निष्कासित ताराचंद साहू की पार्टी छत्तीसगढ़ स्वाभिमान मंच ने अच्छा प्रदर्शन किया था। मंच ने 2.86 फीसदी मत लेकर सबको चौंकाया था। बाद में यह पार्टी भाजपा में विलीन हो गई।

2018 में तीसरी ताकत के लिए जोगी लगे जुगत में

कांग्रेस से अलग हुए अजीत जोगी ने नई पार्टी छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस का गठन करके धुंआंधार प्रचार शुरू किया। जून 2016 से ही चुनावी तैयारी में जुटी पार्टी ने केजरीवाल की स्टाइल में संवा? तंत्र ??, भाजपा की स्टाइल में संगठन और विनेबिलीटी को तवज्जो देनी शुरू की। पार्टी साल 2018 के चुनाव में ठीक प्रदर्शन कर सकती है, चूंकि पार्टी के कोर मतदाताओं में एसी वर्ग मुख्य रूप से शामिल है, जिसके प्रभाव वाली राज्य में 18 सीटों से अधिक हैं।