एक ऐसे अदाकार की अदाकारी जो कल की पीढ़ी के लिए हमेशा श्रेष्ठ बनी रहेगी। हम सिनेमा से उनकी खातिर प्यार कर बैठे जिस प्यार का कोई पैमाना नहीं है।
दुनिया जिन्हें दिलीप कुमार के नाम से जानती है, जिनके अभिनय की मिसालें दी जाती हैं, उनकी ना तो फ़िल्मों में काम करने की दिलचस्पी थी और ना ही उन्होंने कभी सोचा था कि दुनिया कभी उनके असली नाम के बजाए किसी दूसरे नाम से याद करेगी। दिलीप कुमार के पिता मुंबई में फलों के बड़े कारोबारी थे, लिहाजा शुरुआती दिनों से ही दिलीप कुमार को अपने पारिवारिक कारोबार में शामिल होना पड़ा। तब दिलीप कुमार कारोबारी मोहम्मद सरवर ख़ान के बेटे यूसुफ़ सरवर ख़ान हुआ करते थे। एक दिन किसी बात पर पिता से कहा सुनी हो गई तो दिलीप कुमार पुणे चले गए, अपने पांव पर खड़े होने के लिए. अंग्रेजी जानने के चलते उन्हें पुणे के ब्रिटिश आर्मी के कैंटीन में असिस्टेंट की नौकरी मिल गई।
वहीं, उन्होंने अपना सैंडविच काउंटर खोला जो अंग्रेज सैनिकों के बीच काफ़ी लोकप्रिय हो गया था, लेकिन इसी कैंटीन में एक दिन एक आयोजन में भारत की आज़ादी की लड़ाई का समर्थन करने के चलते उन्हें गिरफ़्तार होना पड़ा और उनका काम बंद हो गया।
अपने इन अनुभवों का जिक्र दिलीप कुमार ने अपनी आत्मकथा 'द सबस्टैंस एंड द शैडो' में बखूबी किया है।
दिलीप कुमार साब को बतौर अभिनेता तो हम सबने देखा और सुना है। लेकिन दिलीप कुमार बतौर पड़ोसी कैसे थे ये तजुर्बा हर किसी को नसीब नहीं हुआ। लेकिन मरहूम कलाकार सुनील दत्त इकलौती ऐसी शख्सियत थे, जो इस मामलात में तजुर्बेकार थे। बतौर पड़ोसी और दोस्त युसुफ़ साब कैसे थे सुनील जी ने एक इंटरव्यू के दौरान बताया,
“मैंने दिलीप साहब को बतौर स्टूडेंट भी जाना है. एक ज़माने में मैं रेडियो के लिए इंटरव्यू किया करता था कलाकारों के एक बार दिलीप साहब के इंटरव्यू का भी मौक़ा मिला। मैं एक स्टूडेंट था उस वक़्त. छोटा सा इंटरव्यू करने वाला पत्रकार था। लेकिन दिलीप साब मुझे अपने घर ले गए. अपनी बहनों से, भाइयों से मिलवाया। उस दिन से मेरे दिल में इनके लिए प्यार और सम्मान बढ़ गया। उन्होंने मुझे उस वक़्त से अपने घर का समझा।”
सालों पहले दिलीप साब से जब पूछा गया कि नई पीढ़ी में हमें अब दिलीप कुमार, मधुबाला जैसे कलाकार क्यों नहीं दिखते। इस बारे में दिलीप साब ने सलीके का जवाब दिया, बोले,
“सब मशीन हैं। वो जो कनफ्लिक्ट मधुबाला में या नर्गिस में था, वो आजकल देखने को नहीं मिलता। उनकी अदाकारी बेहतर थी क्यूंकि उनके पास रॉ मटेरियल काफ़ी था। वो कहानी की तहरीर समझते थे। आजकल के कलाकारों में ये चीज़ देखने को नहीं मिलती। बदकिस्मती है कि अब हम विदेशी कल्चर से इन्फ्लुएंस हुए जा रहे हैं। ये जो कल्चरल चेंज है इसने हमें उभरने नहीं दिया है. मैं देखता हूं एक्टर्स को. वो टैलेंटेड हैं। लेकिन उनके पास परफॉर्म करने के लिए मटेरियल ही नहीं है। दूसरा उनके अंदर उस मटेरियल को ढूँढने की क्षमता भी नहीं है। ये एक गलती है जो मैं ज्यादातर कलाकारों को करते हुए देखता हूं। उनके अंदर ढूँढने की इच्छा ही नहीं होती। थोड़ा सा जानकर समझ लेते हैं कि सब आ गया है।”
आपकों बतां दें कि दिलीप कुमार इंडस्ट्री में महज 25 साल की उम्र में ही नंबर वन एक्चर बन गए थे। उनका असली नाम मोहम्मद युसूफ खान था. भारतीय सिनेमा में मेथड एक्टिंग का क्रेडिट उन्हें ही जाता है। दिलीप कुमार के नाम कई सुपरहिट फिल्में हैं। साल 1944 में आई ज्वार भाटा उनकी पहली फिल्म थी। इसके बाद उन्होंने अपनी जिंदगी में इंडस्ट्री को की यादगार फिल्में दी। फिल्म अंदाज, आन, देवदास, दाग, मुगल-ए-आजम समेत कई सदाबहार फिल्मों में दिलीप साहब ने काम किया।