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छतरपुर

लोकगीत गायक देशराज पटेरिया का दिल का दौरा पडऩे से निधन

शनिवार की सुबह 3 बजे मिशन हॉस्पिटल में ली अंतिम सांस67 साल के पटेरिया कुछ समय से चल रहे थे बीमार

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छतरपुर। बुंदेलखंड के मशहूर लोकगीत गायक देशराज पटेरिया का शनिवार की सुबह दिल का दौरा पडऩे से निधन हो गया। 25 जुलाई 1953 में नौगांव कस्बे के पास तिंदनी गांव में जन्में पटेरिया ने छतरपुर शहर के मिशन हॉस्टिपटल में 67 साल की उम्र में अंतिम सांस ली। वह पिछले चार दिनों से छतरपुर के मिशन अस्पताल में भर्ती थे। जानकारी के अनुसार बुधवार को देशराज पटेरिया को दिल का दौरा पड़ा था। जिसके बाद इलाज के लिए उन्हें चिकित्सकीय संरक्षण में रखा गया था। इलाज के दौरान शनिवार की सुबह 3 बजे उन्हे पुन: दिल का दौरा पड़ा और उनकी हृदय गति रुक गई।

मुख्यमंत्री ने जताया शोक
लोकगीत गायक देशराज पटेरिया के निधन पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने दुख व्यक्त किया है। सीएम ने कहा कि पटेरिया ने गायिकी से आंचलिक लोक गायन को समृद्ध बनाया। वे मध्यप्रदेश के साथ ही उत्तरप्रदेश के बुंदेली भाषियों के बीच लोकप्रिय बने।

भैंसासुर मुक्तिधाम में हुआ अंतिम संस्कार
छतरपुर शहर में हनुमान टौरिया के पीछे रहने वाले पटेरिया का अंतिम संस्कार भैंसासुर मुक्तिधाम में किया गया। उनके बेटे विनय पटेरिया ने दोपहर 2 बजे अपने पिता को मुखाग्नि दी। पटेरिया की अंतिम यात्रा में बड़ी संख्या में लोकगायन से जुड़े कलाकार, जनप्रतिनिध, स्थानीय लोग शामिल हुए।

फिल्मी गानों से ज्यादा मशहूर रहे हैं पटेरिया के लोकगीत
देशराज पटेरिया के लोकगीत बुंदेलखंड में फिल्मी गानों से भी ज्यादा मशहूर रहे हैं। वर्ष 1980 आते-आते उनके लोकगीतों की कैसेट मार्केट में आ गए। जो बुंदेलखंड में फिल्मी गीतों की जगह बुंदेली गीत बजने लगे या कहें देशराज पटेरिया के लोकगीतों के जादू हर बुंदेलखंड वासी की जुबां दिखने लगा। इसके बाद उन्होंने बुंदेलखंड के आल्हा हरदौल ओरछा इतिहास के साथ-साथ रामायण से जुड़े हास्य, श्रृंगार संवाद से जुड़े संवाद के भी लोकगीत गाए हैं। पटेरिया अभी तक 10000 से ज्यादा लोक गीत गा चुके हैं। बुंदेली फोक के लिए चर्चित पटेरिया फिल्मी गायक मुकेश को अपना आदर्श मानते थे।

संगीत प्रभाकर की डिग्री लेकर शुरु किया करियर
हायर सेकेंडरी पास करने के बाद इन्होंने प्रयाग संगीत समिति से संगीत में प्रभाकर की डिग्री हासिल की। इसी बीच पटेरिया की नौकरी स्वास्थ्य विभाग में लग गई थी। लेकिन इनका मन बुंदेली लोकगीत गाने में ज्यादा रहता था। इसी कारण वह दिन में नौकरी करते थे और रात में बुंदेली लोकगीतों में भाग लेते थे। वर्ष 1972 में उन्होंने मंचों से लोकगीत गाना शुरू कर दिया। लेकिन उनको असली पहचान वर्ष 1976 में छतरपुर आकाशवाणी ने दी। जब उनके लोकगीत आकाशवाणी से प्रसारित होने लगे, तो बुंदेलखंड में उनकी पहचान धीरे-धीरे बढऩे लगी।

कीर्तन गायक से बने लोकगीत गायक
पटैरिया जब 18 साल के थे तब से तो कीर्तन मंडलियों में भाग लेकर गांव-गांव गायन करने जाते थे। गायन कला के साथ-साथ साइंस के छात्र में प्रथम श्रेणी हायर सेकंडरी पास की। गायन कला में उनकी रूचि जागती गई और वे कीर्तनकार से लोक गीतकार बने। बताते है कि तब लोगों के मनोरंजन के लिए लाउण्ड स्पीकर भी आसानी से उपलब्ध नहीं होते थे। लोग चौपाल बनाकर बैठते थे, तब लोकगीत की प्रस्तुति दी जाती थी। उनका कहना था कि अमरदान मेरे गुरू थे उन्ही से मैंने लोकगीत की गायन कला सीखी।

श्रृंगार एवं भक्ति रस से किया दिलों पर राज
लोक गीतकार पटैरिया हमेशा श्रृंगार, भक्ति एवं वीर रस को प्रस्तुत किया। इसके अतिरिक्त जीजा-साली के गीतों को भी गाया। पटैरिया का सबसे पसंदीदा लोकगीत, वो किसान की लली, खेत खलियान को चली… मगरे पर बोल रहा था कऊआ लगत तेरे मायके से आ गए लिबऊआ.. ऐसे सैकंडो गीत है जो आज भी लोगों को मुंह जुवानी याद है।

देशराज के पसंदीदा गीतों में उठौ धना (पत्नी) बोल रऔ मगरे पै कौआ, मोए लगत ऐसौ तोरे आ गए लिबउआ, चली गोरी मेला खौं साइकिल पै बैठके, जीजा जी चला रए मूंछें दोई ऐंठ के, नई नई दुलैन सज गई है, एक दिन बोली नार पिया सैं कै गांव तुम्हारौ जरयारौ, उतै पवारौ जे ढोर बछेरू हमसें न कटहै चारौ, काफी प्रसिद्ध हुए हैं। पटेरिया के द्विअर्थी लोकगीतों को बुंदेलखंड में काफी पसंद किया जारा रहा है।

एमपी-यूपी के बुंदेली भाषियों के दिल पर किया राज
बुंदेली लोकगीत सम्राट के नाम से मशहूर देशराज पटेरिया मध्यप्रदेश व उत्तरप्रदेश के बुंदेली भाषाई लोगों में सबसे ज्यादा लोकप्रिय थे। वर्ष 1980 से 90 के बीच मुकेश के फिल्मी गानों की कैसेट सबसे लोकप्रिय हुआ करती थी। इसी दौर में पटेरिया के बुंदेली लोकगीत के कैसेट मार्केट में आए, जिसके बाद बुंदेलखंड में फिल्मी गानों की जगह पटेरिया के बुंदेली लोकगीत ने लोगों के दिल व जुवां पर जगह बनाई। हर कार्यक्रम, हर गली-मोहल्ला में देशराज की कैसेट बजते थे।

देशराज की संगत से मशहूर हुई महिला गायिका
देशराज पटेरिया के साथ लोकगीत सहयोगी गायिका के रुप में सबसे पहले सागर की रामकली रैकवार जुड़ी। इसके बाद लक्ष्मी तिवारी और उर्मिला पांडेय ने देशराज के साथ कई लोकगीत गाए। देशराज के साथ उर्मिला पांडेय की जोड़ी लोकगायकों में सबसे फेमस रही। लोगों ने उर्मिला पांडेय के साथ उनकी जुगलबंदी को सबसे ज्यादा पसंद किया। खासतौर पर ग्रामीण अंचल में अभी भी देशराज के लोकगीत सबसे ज्यादा सुने जाते हैं।

चुनाव प्रचार में भी देशराज के गीतों का चलता था सिक्का
70 से 90 के दशक में बुंदेलखंड में चुनाव प्रचार के लिए लोगों की भीड़ जोडऩे के लिए देशराज पटेरिया के कैसेट लाउडस्पीकर बजाए जाते थे। हाट-बाजार में देशराज की आवाज का सिक्का चलता था। लोग उनकी मीठी आवाज को सुनने लिए कई घंटे तक एक ही जगह खड़े रहते थे। जिस सभा में देशराज पटेरिया खुद गाने के लिए आते वहां, कार्यक्रम के दौरान तालियों और ठहाकों की
गूंज देशराज की लोकप्रियता का प्रमाणित करती थी।

बुन्देली गायन को दी नई पहचान
उन्होंने अपनी गायिकी से न सिर्फ बुन्देली संस्कृति का प्रचार-प्रसार किया बल्कि मिठास से भरी बुंदेली बोली को भी दूर-दूर तक पहुंचाया। बुंदेलखण्ड की सांस्कृतिक विविधता को वे अपनी गायिकी से इस तरह परोसते थे कि लोग मंत्रमुग्ध हो जाते थे। बुन्देली लोकगीतों में उन्होंने फाग, दिवारी, आल्हा गायन, राई गीत, भजन को नए आयाम दिए। उनके श्रंगार गीत युवाओं में बहुत पसंद किए जाते थे। वे देश के कई शहरों में सम्मानित हुए और बुन्देली गायन को सुशोभित करते रहे। गायन माध्यम से वर्तमान सामाजिक व्यवस्था और ग्रामीण परिवेश पर गहरे व्यंग्य उनकी पहचान थे। वे वर्तमान में सोशल मीडिया पर भी बेहद आसानी से अपने प्रशंसकों तक पहुंच रहे थे। उनका एक गीत सैंया लडिय़ो नहीं चुनाव वर्ष 2018 के विधानसभा चुनाव के दौरान सोशल मीडिया पर जबर्दस्त हिट रहा।

सिर्फ मनोरंजन नहीं, बुंदेली शौर्य को भी जन-जन तक पहुंचाया
उन्होंने अपनी गायिकी से आवाम का मनोरंजन ही नहीं किया बल्कि वे अपनी इस कला के जरिए बुंदेलखण्ड के शौर्य और पराक्रम को भी युवा पीढ़ी तक पहुंचाते रहे। लाला हरदौल, आल्हा, ऊदल और महाराजा छत्रसाल के जीवन से जुड़ीं घटनाएं भी उनकी गायिकी का अहम हिस्सा रहीं। मंच पर अपनी आवाज के माध्यम से जब भी वे इन महानायकों का चित्र खींचते सामने बैठे लोग जोश और उत्साह से भर जातेे थे।

बड़े भाई से मिली थी गायिकी की प्रेरणा
पटेरिया कक्षा 6वीं में थे, जब अपने बड़े भाई मदनमोहन पटैरिया को कीर्तन गाते हुए उन्हें गायन की प्रेरणा मिली थी। गांव के कीर्तन से शुरू हुआ यह सफर देश के बड़े मंचों तक पहुंचा। 90 के दशक और नई सदी के शुरूआती दशक में जब म्यूजिक इंडस्ट्री कैसेट से सीडी के संसार में पहुंची तब देशराज पटेरिया की लोकप्रियता गांव-गांव तक पहुंच गई। वे हर मेले, बाजार, ठेले से लेकर धार्मिक आयोजनों और राजनैतिक सभाओं में सुने जाने लगे। हनुमानजी के भक्त देशराज पटेरिया ने अपनी गायिकी से पौराणिक पात्रों को भी जन सामान्य के लिए सरल बना दिया।

दो साल पहले पैरालाइसिस की चुनौती से जूझकर लौटे थे
लगभग दो साल पहले पैरालाइसिस का आघात झेलने के बाद भी वे अपने जीवठ व्यक्तित्व के कारण इस चुनौती से लड़कर लौट आए थे। बीमार होकर स्वस्थ हुए और फिर मंचों पर भी लौटे। कोरोना महामारी के दौरान जब सार्वजनिक समारोह प्रतिबंधित हो गए तो उन्होंने आमजनता को इस महामारी के प्रति जागरूक करने का जिम्मा भी निभाया और कोरोना पर एक शानदार लोकगीत रिकॉर्ड कर लोगों तक पहुंचाया। इस गीत के बोल थे लगवा दए मुसीका सबखां, चीनत कोऊ बने न।

एक कार्यक्रम जिसमें मांगी प्रार्थना मां ने सुन ली
देशराज पटेरिया के अपने जन्म स्थान छतरपुर जिले से गहरा लगाव था। वे छतरपुर शहर में होने वाले वार्षिक मां अन्नपूर्णा मेला जलबिहार के कार्यक्रम में नियमित प्रस्तुति देते रहे। इस मंच पर वे हमेशा बिना कोई शुल्क लिए गाते थे। उनका कहना था कि मां अन्नपूर्णा का यही मंच है जिसने उन्हें पहली बार एक गायक के रूप में पहचान दिलाई थी। पिछले साल यानि 2019 में ही जब वे पैरालाइसिस अटैक के बाद मंच पर लौटे तो उन्होंने मां अन्नपूर्णा मेला जलबिहार में ही अपनी प्रस्तुति दी थी। इसी प्रस्तुति के दौरान उन्होंने एक ऐसी बात कही जो सच साबित हो गई। उन्होंने कहा था कि इस मंच पर ही उनकी पहली प्रस्तुति हुई थी। वे चाहते हैं कि मां के दरबार में ही उनकी आखिरी प्रस्तुति हो और फिर वही हुआ। पिछले साल इस प्रस्तुति के बाद देशभर में कोरोना के कारण सार्वजनिक कार्यक्रमों में रोक लग गई और इस वर्ष जब अन्नपूर्णा मेला के आयोजन का ही समय चल रहा था तब उन्होंने इस संसार को अलविदा कह दिया।