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‘बाबा के ब्याह’ बुंदेलखंड की सांस्कृतिक विरासत की अनोखी झलक

बुंदेलखंड की सांस्कृतिक पहचान सिर्फ उसकी ऐतिहासिक धरोहरों और स्थापत्य कला तक सीमित नहीं है, बल्कि यहां की लोक परंपराएं भी इसकी विविधता को दर्शाती हैं।

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दमोह. बुंदेलखंड की सांस्कृतिक पहचान सिर्फ उसकी ऐतिहासिक धरोहरों और स्थापत्य कला तक सीमित नहीं है, बल्कि यहां की लोक परंपराएं भी इसकी विविधता को दर्शाती हैं। इन्हीं परंपराओं में शामिल है 'बाबा के ब्याह' या गौरैया प्रथा, जो एक समय बुंदेलखंड के गांव गांव में उल्लासपूर्वक निभाई जाती थी, लेकिन आज यह विलुप्ति के कगार पर पहुंच चुकी है।क्या है बाबा के ब्याह की परंपरा

बुंदेलखंड में जब किसी परिवार में विवाह होता है और बारात वधु के घर जाती है, तब पीछे रह जाने वाली महिलाएं बाबा के ब्याह का आयोजन करती हैं। इसमें एक महिला दूल्हा और दूसरी दुल्हन बनती थीं, जबकि अन्य महिलाएं बाराती बनकर पूरे गांव में गीत गाते नाचते हुए हंसी-ठिठोली का यह आयोजन करती थीं।

कुछ क्षेत्रों में यह आयोजन बारात लौटने के बाद भी किया जाता था, जिसमें महिलाएं पुरुषों से बेलन से मारने की शर्त पर नेग उपहार/रकम, लेती हैं। रसूखदार लोग भी इस रस्म से बच नहीं पाते हैं।

शक्ति और सुरक्षा का प्रतीक भी रही यह परंपरा

इस लोक खेल के पीछे केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि सामाजिक संदेश भी निहित है। पहले के दिनों में जब विवाह समारोह दो तीन दिन तक चलता था और पुरुष सदस्य बारात में चले जाते थे, तब घर की सुरक्षा की जिम्मेदारी महिलाओं की होती थी। ऐसे में वे रातभर जागकर, हास्य-वीर रस से ओतप्रोत इस आयोजन के ज़रिए सामाजिक चेतना का प्रदर्शन करती थीं।

अब सिमट रही परंपरा, शहरों में लुप्त

वक़्त के साथ यह परंपरा अब सिर्फ कुछ ग्रामीण इलाकों तक सीमित रह गई है। आधुनिकता, सामाजिक परिवर्तनों और नई पीढ़ी की बदलती प्राथमिकताओं के चलते यह अनूठा सांस्कृतिक आयोजन शहरी और कस्बाई क्षेत्रों से लगभग गायब हो गया है।