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18 आचार्यों की देन है सिद्धा पद्धति

locationजयपुरPublished: Apr 27, 2019 11:25:40 am

Submitted by:

Jitendra Rangey

आयुर्वेद से भी पुरानी इस चिकित्सा पद्धति में जीवनशैली से जुड़े रोगों का इलाज संभव है।

Siddha therapy

Siddha therapy

ट्रेडिशनल थैरेपी
तमिलनाडु की पारंपरिक चिकित्सा पद्धति ‘सिद्धा’ आधुनिक जीवनशैली की वजह से होने वाली बीमारियों के इलाज में कारगर साबित हो रही है। इसी वजह से लगभग चार हजार वर्ष पुरानी यह चिकित्सा पद्धति मेट्रो शहरों में भी अपनाई जाने लगी है। कई देशों में सिद्धा के डॉक्टर प्रैक्टिस कर रहे हैं। थाईलैंड में तो इसे सरकारी मान्यता भी मिल चुकी है। कई बातों में समानता होने के कारण आमतौर पर लोग इसे आयुर्वेदिक पद्धति का ही अंग समझ लेते हैं लेकिन यह उससे अलग है। ‘सिद्धा’ जीवनशैली से जुड़ी बीमारियों जैसे तनाव, अनिद्रा, ब्लड प्रेशर आदि के इलाज में प्रभावी है। उपचार के दौरान इसमें बच्चे, गर्भवती महिला और बुजुर्गों के हिसाब से अलग विधि से दवा तैयार की जाती हैं। हाल ही राजस्थान सरकार ने प्रदेश में ‘सिद्धा’ को बढ़ावा देने के लिए इनके संस्थानों से करार किया है। आइए जानते हैं इस चिकित्सा पद्धति के बारे में-
रोग का कारण- त्रिदोष
आयुर्वेद की तरह सिद्धा में भी वातम (वात), पित्तम (पित्त) और कफम (कफ) त्रिदोष माने गए हैं। पर्यावरण, खानपान, शारीरिक गतिविधियां और तनाव आदि को भी बीमारियों के लिए कारक माना गया है।
8 तरह की जांच विधियां
आठ विधियों से इस पद्धति में रोगों की पहचान की जाती है
नाड़ी पल्स देखकर
स्पर्शम त्वचा छूकर
ना जीभ से
निरम त्वचा का रंग देखकर
मोझी आवाज से
विझी आंख देखकर
मूथरम यूरिन का रंग देखकर
मलम मल के रंग से
शरीर को सात अंग मानकर करते है इलाज
सिद्धा चिकित्सा पद्धति में यह माना जाता है कि शरीर का विकास मुख्यत: सात अंगों से हुआ है।
चेनीर (ब्लड) : मांसपेशियों व बौद्धिक क्षमता का विकास। शरीर का रंग भी तय करता है।
उऊं (मांसपेशियां) : शरीर की संरचना।
कोल्लजुप्पु (फैटी टिश्यू) : जोड़ों को लचीला बनाते हैं।
एन्बू (हड्डियां) : आकार देने और चलने-फिरने में मदद करती हैं।
मूलाय (नर्वस): मजबूती देती हैं।
सरम (प्लाज्मा) : शरीर का विकास और भोजन निर्माण करने में सहायक है।
सुकिला (वीर्य) : प्रजनन।
इतिहास
इस पद्धति का विकास लगभग 4000 साल पहले हुआ था। ईसा पूर्व तमिलनाडु तट के पास एक द्वीप जलमग्न हो गया था। वहां से लोग तमिलनाडु चले आए थे। इनमें से ही नंदी, अगस्त्य, अग्गपे, पाम्बाति, प्रेरयार आदि 18 आचार्यों ने मिलकर इस पद्धति को विकसित किया था।
आयुर्वेद से इस प्रकार अलग है यह पद्धति
सिद्धा पद्धति में बाल्यावस्था, प्रौढ़ावस्था और वृद्धावस्था में वात, पित्त व कफ की प्रमुखता है जबकि आयुर्वेद में बाल्यावस्था में कफ, वृद्धावस्था में वात और प्रौढ़ावस्था में पित्त की महत्त्वपूर्ण माना गया है। आयुर्वेद और सिद्धा की जड़ी-बूटियों में काफी अंतर होता है। आयुर्वेदिक दवा तैयार होने के बाद लंबे समय तक खाई जा सकती है जबकि सिद्धा में बनीं अधिकतर दवाएं तीन घंटे के अंदर लेनी होती हैं। आयुर्वेद में रोगों से बचाव के लिए योग करना बताया जाता है जबकि सिद्धा में इलाज के दौरान ही योग कराया जाता है ताकि दवा का असर ज्यादा हो।
प्रोसेस्ड फूड
इस चिकित्सा पद्धति के तहत कुछ बातों का विशेषतौर पर ध्यान रखा जाता है। उपचार में प्रोसेस्ड फूड (ऐसा भोजन जिसे उसकी प्राकृतिक अवस्था से बदल दिया जाए जैसे डिब्बाबंद जूस या सूप) पूरी तरह वर्जित होता है। नमक व चीनी कम से कम मात्रा में लेने होते हैं और खूब पानी पीने के लिए कहा जाता है।
इलाज के तरीके
सिद्धा चिकित्सा में तीन प्रकार से मरीजों का इलाज किया जाता है।
देवा मुरुथुवम (दैवीय विधि)
मरीजों को एक ही प्रकार की दवा जैसे परपम, चेंदुरम और गुरु आदि दी जाती है। यह सल्फर, मर्करी या पसनमस आदि से बनाई जाती हैं।
मनीदा मुरुथुवम (मानव विधि)
इसमें कई प्रकार की जड़ी-बूटियों के साथ मिनरल्स आदि मिलाए जाते हैं। इनमें चूर्णम, कीद्दीनूर और वादगम आदि शामिल हैं।
असुरा मुरुथुवम (सर्जरी विधि)
सिद्धा में भी सर्जरी की जाती है। चीरा, टांके, सोलर थैरेपी, जोंक थैरेपी और रक्तशोधन विधि का इस्तेमाल भी किया जाता है।
डॉ. सनुमोन श्रीधरन, सिद्धा चिकित्सा विशेषज्ञ
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