
इन्होंने गुुरु पद की बढ़ाई महिमा, इनकी सच हुई भविष्यवाणियां...
गुरु पूर्णता का पर्याय है। अपने ज्ञान से शिष्यों को परमार्थ की राह दिखाते हैं। जिस गुरु शब्द का अर्थ ही अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाना है। ऐसे गुरुओं की शरण में जाने मात्र से जीवन का रोम-रोम महकने लग जाता है। दुनिया जिनके चरणों में झुकती है। वागड़ के डूंगरपुर जिले में कई ऐसे गुरु हुए हैं, जिन्होंने धर्म की पताकाएं सात समंदर पार तक लहराई हैं। गुरु पूर्णिमा के अवसर पर जिले के ऐसे परमात्मन गुुरु को करते हैं नमन...
वागड़ की संत-गुरु परम्परा में गवरीबाई बहुत बड़ा हस्ताक्षर है। जिन्हें अपनी कृष्ण भक्ति के कारण वागड़ की मीराबाई के नाम से जाना जाता है। संवत् १८१५ में वडऩगर नागर ब्राह्मण जाति में जन्मी गवरी बाई बचपन से ही ईश्वर साधना में जुड़ी। मात्र छह वर्ष की आयु में विवाह होने व कुछ दिनों के अंतराल में ही विधवा हो जाने के बाद गवरी बाई का सम्पूर्ण जीवन पूजा-पाठ में लग गया। कृष्ण भक्त गवरी बाई ने इस दौरान कई पदों की रचना की जो सहजता, सरलता के कारण आमजनों की जुबां पर चढ़ गए। अनन्य कृष्ण भक्ति को मुखरित करते साढ़े छह सौ से अधिक पदों की रचना की। गवरी बाई ने अपने आध्यात्म की रससरिता से आमजन को भी लाभान्वित किया। उनकी ख्याति चहुंओर फैली और दूर-दूर से लोग उनके भक्ति गीतों और व्याख्यान सुनने आते। महरावल शिवसिंह ने भी उनसे धर्म अध्यात्म व भक्ति पर व्यापक चर्चा की और उनकी धार्मिक प्रवृत्ति को देखते हुए एक देवालय की प्रतिष्ठा करवा उपासना के लिए गवरी बाई को सौंप दिया। कृष्ण भक्ति में लीन गवरीबाई वृंदावन और मथुरा की यात्रा पर गई और चैत्र सुदी नवमी १९६५ में उन्होंने यमुनाघाट पर अपनी देह त्यागी।
मावजी का जन्म जिले के साबला गांव में हुआ। मां का नाम केसरबाई और पिता नाम दालमा ऋषि था। आठ वर्ष की आयु से ही भगवद् भक्ति में लीन संत मावजी ने १३ वर्ष की उम्र से ही समाज सेवा से जुड़ गए। उन्होंने जाति प्रथा का खण्डन, महिला उद्धार, छूत उद्वार के प्रति जनजागृति लाने का कार्य किया। उन्होंने भक्ति रस में कई पदों व साखियों की रचना भी की। संत मावजी के उपदेश व भविष्वाणियां, रासगीत आदि चौपड़ों में सुरक्षित हैं। संत मावजी के प्रति न केवल वागड़ अपितु गुजरात, महाराष्ट व मालवा क्षेत्रवासियों की भी अगाध श्रद्धा है। उनकी भविष्यवाणियां सच हुई। आज भी उनके असंख्य शिष्य हैं।
वागड़ के स्वाधीनता संग्राम के अग्रदूत, समाज सुधारक गोविन्द गुरू का जन्म जिले के बेड़सा (बांसिया) गांव में २० दिसम्बर १८५८ को हुआ। बाल्यकाल से ही पढ़ाई लिखाई के साथ धार्मिक व आध्यात्मिक विचारों को आत्मसात किए गोविन्द गुरू पर स्वामी दयानंद के विचारों का खासा प्रभाव दिखा। इन्होंने सामाजिक कुरीतियों, दमन व शोषण से जुझ रहे समाज को उबारने के लिए १९०३ में संप सभा का गठन किया। संगठन की गतिविधियों का केन्द्र मानगढ़ धाम बना। सन् १९१३ में मार्गशीर्ष पूर्णिमा के दिन इसी पहाड़ी पर गोविन्द गुरू के नेतृत्व में संप सभा हुई। इसमें हजारों आदिवासी भगत जमा थे। सामाजिक सुधार गतिविधियों व धार्मिक अनुष्ठानों में व्यस्त थे कि अंग्रेजी फौज ने पूरी मानगढ़ पहाड़ी को घेरकर फायरिंग कर दी और कई भक्त काल कल्वित हो गए। गोविन्द गुरू भी पांव में गोली लगने से घायल हो गए। उन्हें वहीं गिरफ्तार कर लिया गया। बाद में उन्हें फांसी की सजा सुनाई। इसे बाद में आजीवन कारावास में बदला। फिर सजा कम करते हुए १९२३ में संतरामपुर जेल से रिहा किया। इसके बाद १९२३ से १९३१ तक भील सेवा सदन झालोद के माध्यम से लोक जागरण, भगत दीक्षा व आध्यात्मिक विचार क्रांति का कार्य करते हुए लोक क्रांति के प्रणेता गोविन्द गुरू ३० अक्टूबर १९३१ को ब्रह्मलीन हो गए।
रामबोला मठ के महा मण्डलेश्वर केशवदास महाराज ने भी गुरु पद की महिमा बढ़ाई। अखिल भारतीय दिगमबर पंच अनि अखाड़े के जीवन पर्यन्त राष्ट्रीय अध्यक्ष केशवदास महाराज के ही नेतृत्व में ही नासिक कुम्भ, 2004 में उज्जैन में महाकुम्भ, 2010 में हरिद्वार में महाकुम्भ हुआ। उनका जन्म देवप्रयाग उतराखण्ड में 10 सितम्बर 1935 में हुआ। हरिद्वार में दिगम्बर अनि अखाड़ा के पंच 13 भाई त्यागी में रामानंददास आश्रम में केशवदास महाराज लम्बे समय तक रहे। इसके बाद अखिल भारतीय श्रीपंच दिगम्बर अनि अखाड़ा के महामंत्री पंडित मोहनदास महाराज को उन्होंने अखाड़े में अपना साधिक गुरु बनाया। बाद में गुरु रामलखनदास महाराज उन्हें मध्यप्रदेश लाए। अगले क्रम में गुजरात आए। यहां शामलाजी में महंत सरजूदास महाराज से मुलाकात हुई। वर्ष 1972 में रामबोला मठ के महाराज रघुनंददास महाराज के आग्रह पर वह यहां आए और लम्बे समय तक धर्म की पताकाएं फहराई। 27 सितम्बर 2012 में वह साकेतवासी हुए। उनकी ही परम्परा को महामण्डलेश्वर हरिकिशोर दास महाराज शामलाजी एवं महंत व अखिल भारतीय श्री पंच दिगम्बर अनि अखाड़ा के महामंत्री शिवशंकर दास महाराज रामबोला मठ में आगे बढ़ा रहे हैं।
संत सुरमालदास वागड़ के प्रमुख संतों में ख्याति लिए हुए हैं। उन्होंने जनजाति समाज में उस दौर में जागृति लाने का बीड़ा उठाया, जब शिक्षा, धर्म-कर्म, सद्कर्म आदि से सब अनजान थे। उन्होंने समाज को अलग ही दिशा देने का मानस बनाया। गांव में धर्म की अलख जगाते हुए मद्य एवं मांस सेवन का त्याग कराया। साथ ही समाज के लोगों को धर्म के पथ पर चलकर दुष्प्रवृतियों से दूर रहने की शिक्षा दी। संत सुरमाल दास ने गांव-गांव में धर्म के धूणियां स्थापित करवाई। वहीं, भगत परम्परा को विकसित करते हुए हर घर को मंदिर का रुप बताते हुए सफेद ध्वज फहराए गए। आज भी जिले के गांव-गांव में संत सुरमाल दास के अनुयायी एवं धर्म स्थल सहज मिलते हैं। संत सुरमाल दास ने समाज के उत्थान में अपना सर्वस्व जीवन समर्पित कर दिया।
Published on:
27 Jul 2018 07:30 am
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