UP Assembly Elections 2022: समाजवादी पार्टी ने पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में इस बार चुनाव अच्छे से खड़ा तो किया बावजूद इसके उसे अपेक्षित सफलता नहीं मिल सकी। क्या है इसकी वजह। इस संबंध में पत्रिका ने बात की प्रखर समाजवादी जार्ज फर्नांडीज से निजी सचिव विजय नारायण से, तो जानते हैं क्या कहते हैं पुराने खांटी समाजवादी...
वाराणसी. UP Assembly Elections 2022 खत्म हो चुका है। परिणाम सामने है। अब विभिन्न पार्टियों की बीच हार-जीत की समीक्षा का दौर शुरू होगा। लेकिन इस बीच समाजवादी पार्टी जिसने इस चुनाव को खड़ा तो अच्छे ढंग से किया पर उससे कहां क्या चूक हुई जिससे वो अपेक्षित परिणाम नहीं दे सकी, इसकी समीक्षा भी शुरू हो चुकी है। इसी सिलसिले में पत्रिका ने खांटी समाजवादी जार्ज फर्नांडीज के निजी सचिव रहे डॉ राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण के शिष्यों में एक विजय नारायण से बात की। तो जानते हैं समाजवादी पार्टी के पिछड़ने पर क्या कहते हैं समाजवादी चिंतक विजय नारारयण....
अखिलेश का वन मैन शो
खांटी समाजवादी विजय नारायण बताते हैं कि समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने अपने पिता मुलायम सिंह से बहुत कुछ सीखा पर कई मसले ऐसे रहे जहां वो चूक गए। वो बताते हैं कि मुलायम सिंह के पास एक टीम हुआ करती थी, जिसमें हर वर्ग का प्रतिनिधित्व होता था। उस टीम के नेता मुलायम सिंह के साथ कंधे से कंधा मिला कर चलते थे जैसे उनके पास बेनी बर्मा थे तो आजम खां भी थे। अमर सिंह रहे तो जनेश्वर मिश्र भी थे। लेकिन अखिलेश पूरे चुनाव भर वन मैन शो करते दिखे जबकि बीजेपी पूरी टीम के साथ उनके मुकाबिल रही। ऐसे में हम कह सकते हैं कि अखिलेश की सोशल इंजीनियरिंग की केमिस्ट्री फेल हो गई। चुनाव अगर बीजेपी जैसी मजबूत टीम से लड़ना है तो उन्हें हर वर्ग का एक नेता तैयार करना होगा जिसकी अपने समाज में अच्छी पैठ हो और वो अच्छा वक्ता हो। इससे वर्क लोड भी बंटेगा और जिससे लड़ रहे हैं उनके नेताओं की घेरेबंदी हो सकेगी। वो बताते हैं कि अखिलेश लालजी वर्मा का उपयोग ज्यादा अच्छी तरह से कर सकते रहे। वो कुर्मियों के अच्छे व बड़े नेता हैं। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। इसी तरह अन्य समाज के नेतृत्व को तलाश कर अपनी एक नई टीम खड़ी करनी होगी जो टीम बीजेपी का मुकाबला कर सके।
कहीं नहीं दिखा कोई मुस्लिम नेता
विजय नारायण कहते हैं कि ये तय रहा कि मुस्लिम वोटबैंक अखिलेश के साथ जा सकता है। बावजूद इसके पूरे चुनाव भर एक भी सभा में कोई मुस्लिम नेता अखिलेश के संग मंच साझा करते नहीं दिखा। वो कहते हैं कि ठीक है कि आजम खां जेल में थे लकिन उनका बेटे अब्दुल्ला आजम का इस्तेमाल हो सकता था, आजम खां की पत्नी को ले सकते थे। इससे उस पूरी कौम के बीच मैसेज जाता। साथ ही सहानुभूति भी मिलती जो नहीं हो सका।
पिछड़ों-अति पिछड़ों पर फोकस ज्यादा, सवर्णों को लगा उनसे है एलर्जी
समाजवादी विजय नारायण का कहना है कि भारतीय लोकतंत्र जब जाति और धर्म पर ही केंद्रित हो गया है तो कोई भी सामाजिक केमिस्ट्री तब तक सफल नहीं हो सकती जब तक हर जाति का समावेश न हो। लेकिन इस बार के चुनाव में अखिलेश ने पिछड़ों और अति पिछड़ों पर ही सारा ध्यान केंद्रित कर दिया जिसका खामियाजा ये हुआ कि सवर्णों के बीच एक मैसेज गया कि अखिलेश को सवर्णों से एलर्जी है। हालांकि उन्होंने कई सवर्णों को टिकट दिया औऱ उनमें से कई जीते हैं तो कई अंतिम दम तक लड़ते दिखे पर इसका प्रचार प्रसार नहीं हुआ। लिहाजा बीजेपी से नाराज सवर्ण मतों को साधने में भी वो पूरी तरह से सफल नहीं हो सके।
समाजवादी तरीके से बीजेपी पर आक्रमण का अभाव
खांटी समाजवादी विजय नारायण कहते हैं कि समूचा देश आर्थिक संकट से गुजर रहा है। बावजूद इसके बीजेपी ने जिस अंदाज में इस यूपी विधानसभा चुनाव में संसाधनों का उपयोग किया उस पर समाजवादी ढंग से प्रभावी आक्रमण होना चाहिए था। ये पूछा जाना चाहिए था कि ये संसाधन कहां से आ रहे हैं। इस मुद्दे पर बार-बार, लगातार हमला होना चाहिए था जैसे हम लोग कांग्रेस के खिलाफ करते रहे। वो एक दम नहीं दिखा।
गठबंधन करने में फिर हुई चूक
उन्होंने कहा कि अखिलेश ने अब तक तीन प्रमुख बड़े गठबंधन किए, पहले कांग्रेस के साथ 2017 में, फिर बसपा के साथ 2019 में और इस बार रालोद के साथ लेकिन तीनों ही गठबंधन उन्हें रास नहीं आया। इस बार ये साफ नजर आया कि पश्चिम में जो प्रभाव चौधरी चरण सिंह, अजीत सिंह में था वो जयंत में नजर नहीं आया। लिहाजा ये गठबंधन भी फेल हो गया। यहां तक कि साल भर चले किसान आंदोलन का भी फायदा पूरी तरह से नहीं उठा पाए। किसान आंदोलन में समाजवादी पार्टी ने जो भी योगदान किया उसे पब्लिक के बीच पहुंचा नहीं पाए।
जिन क्षत्रपों को जोड़ा वो अपने तक सीमित रह गए
विजय नारायण बताते हैं कि अखिलेश ने ओम प्रकाश राजभर, दारा सिंह चौहान, स्वामी प्रसाद जैसे क्षत्रपों को अपने साथ जोड़ा पर ओम प्रकाश राजभर तो टिकट घोषणा के पहले तक अखिलेश के संग घूमते नजर आए पर जैसे ही चुनाव आया वो अपने और अपने बेटे तक सिंमट गए। उसी तरह से दारा सिंह चौहान का हाल रहा। स्वामी प्रसाद तो अपनी ही सीट नहीं बचा पाए। उधर अपना दल (कामेरावादी) से पल्लवी पटेल भले जीत गईं पर कृष्णा पटेल हार गईं। यानी इनमें से कोई भी अखिलेश के साथ मिल कर लड़ता नहीं दिखा बल्कि अपनी-अपनी जीत सुनिश्चित करने में ही जुट गए। इससे इनकी बिरादरी का जो मत समर्थन था वो पूरी तरह से ट्रांसफर नहीं हो सका। इसके अलावा कई ऐेसे प्रत्याशी उतारे गए जिनकी अपनी कोई पहचान नहीं थी।