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Independence Day 2019: 1857 के स्वाधीनता संग्राम में रानी लक्ष्मीबाई के साथ 745 साधुओं ने दी थी अपने प्राणों की आहुति

locationग्वालियरPublished: Aug 15, 2019 08:31:02 am

Submitted by:

Gaurav Sen

maharani laxmi bai chhatri in gwalior: 1857 के स्वाधीनता संग्राम में महती योगदान झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का था। अंग्रेजों से लड़ते-लड़ते उन्होंने अपने प्राणों की आहुति दी थी।

maharani laxmi bai chhatri in gwalior: independence day 2019

Independence Day 2019: 1857 के स्वाधीनता संग्राम में रानी लक्ष्मीबाई के साथ 745 साधुओं ने दी थी अपने प्राणों की आहुति

ग्वालियर. हमारे देश को आजादी ऐसे ही नहीं मिली थी, इसके लिए कई वीरों ने अपने प्राणों की आहुतियां दी थीं। 1857 के स्वाधीनता संग्राम में महती योगदान झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का था। अंग्रेजों से लड़ते-लड़ते उन्होंने अपने प्राणों की आहुति दी थी। जिस जगह वीरांगना ने अपनी देह त्यागी थी, उस जगह यानी ग्वालियर के फूलबाग के पास उनकी याद में समाधि स्थल बनाया गया है। इस जगह आकर हर देशवासी का सर फक्र से ऊंचा हो जाता है, उनमें देशप्रेम की भावना उमडऩे लगती है।

फिरंगियों के हाथ नहीं लगने दिया शरीर
रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजों से लड़ते हुए ग्वालियर आईं। युद्ध में वह बुरी तरह घायल हो गईं। रानी यहां गंगादास महाराज की शिष्या पूर्व में ही बन चुकी थीं। अंग्रेज सेना से घिरने पर उन्होंने गुरु की शरण में जाने का निर्णय लिया। घायल रानी की पीठ पर उनका पुत्र था। उन्होंने गंगादास महाराज से प्रार्थना की कि उन्हें अंतिम विदा दें। उन्होंने कहा कि मेरी पार्थिव देह फिरंगियों के हाथ न लगे। गंगादास महाराज ने तत्काल अपने अखाड़े के साधुओं को आज्ञा दी। उस समय करीब 1200 संत थे, वे अंग्रेज सेना पर टूट पड़े। साधुओं ने तलवार, भाले, नेजे, चिमटे आदि से अंग्रेजों को भागने पर विवश कर दिया। इस युद्ध में 745 साधु शहीद हुए।

झोपड़ी गिराकर रानी की चिता बनाई
गंगादास महाराज ने वीरांगना लक्ष्मीबाई के पुत्र को उनके विश्वस्त अनुचर के साथ सुरक्षित स्थान पर भेज दिया और शीघ्रता से अपनी झोपड़ी को गिराकर रानी की अंतिम यात्रा के लिए चिता बना दी। रानी का वैदिक रीति से अंतिम संस्कार कर महाराज अपने शेष बचे साधु-संतों को लेकर ग्वालियर से बाहर चले गए। गंगादास महाराज ने जहां वीरांगना का अंतिम संस्कार किया था, वहीं उनकी वर्तमान समाधि स्थित है। इस पवित्र स्थान पर राष्ट्रीय एकता और सामाजिक सद्भावना की अखंड ज्योति प्रज्जवलित है।

बनी हैं साधुओं की समाधि

उस समय गंगादास की शाला के महंत गंगादास महाराज थे। रानी की पार्थिव देह की रक्षा करते हुए इस अखाड़े के 745 संतों ने वीरगति प्राप्त की थी। इन साधुओं की याद में 16 साधुओं की समाधियां आज भी यहां बनी हुई हैं।

ये लिखा है समाधि स्थल पर
महारानी लक्ष्मीबाई ने सन 1857-58 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में वीर गति प्राप्त की और इस स्थान पर उनके शरीर का दाह संस्कार किया गया। जन्म बनारस में 19 नवंबर 1835 को और मृत्यु 18 जून 1858 को ग्वालियर में हुई। इस स्मारक का निर्माण तत्कालीन महाराजा माधवराव सिंधिया आलीजाह बहादुर के शासन काल में सन 1920 में पुरातत्व विभाग आर्केलॉजिकल डिपार्टमेंट की ओर से करवाया गया।

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लक्ष्मीबाई जैसे वीरों की बदौलत हम आजाद हैं
रानी लक्ष्मीबाई का समाधि स्थल हम सभी के लिए बहुत खास है। इस जगह उन्होंने अपनी देह त्यागी थी। लक्ष्मीबाई जैसे वीरों की बदौलत ही आज देशवासी खुली हवा में सांस ले रहे हैं। उनके लिए 745 साधुओं ने भी अपने प्राण्यहां रखे हैं अस्त्र-शस्त्राों की आहुति दी थी। उनकी समाधियां शाला में बनी हुई हैं। रामसेवक दास महाराज, महंत, गंगादास की बड़ी शाला रानी लक्ष्मीबाई के अस्त्र-शस्त्र नगर निगम के संग्रहालय में रखे हुए हैं। वहीं साधु-संतों के अस्त्र-शस्त्र गंगादास की बड़ी शाला में रखे हैं।

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