जर्नल साइंस में प्रकाशित इस अध्ययन में खमीर पर किए इस शोध के जो नतीजे मिले वे काफी चौंकाने वाले थे। वैज्ञानिकों के अनुसार ‘आनुवांशिक रूप से अलग-अलग प्रक्रिया से’ समान आनुवांशिक सामग्रियों (Genetic Materials) और एक जैसे वातावरण में बनी कोशिकाएं अलग-अलग हो सकती हैं। माइक्रोफ़्लुइडिक्स और कंप्यूटर मॉडलिंग सहित अन्य आधुनिक तकनीकों का उपयोग करके वैज्ञानिकों ने देखा कि खमीर की आधी सेल (कोशिका) के नाभिक में स्थित एक गोल शरीर वाले न्यूक्लियोलस के क्रमिक गिरावट के कारण बूढ़ी होती हैं। जबकि बाकी की आधी कोशिकाएं माइटोकॉन्ड्रिया की शिथिलता के कारण वृद्ध होती हैं, जो कोशिका में ऊर्जा का उत्पादन करती हैं। वैज्ञानिकों ने बताया कि खमीर की ये दोनों कोशिकाएं जीवन के आरंभ में दो रास्तों परमाणु या माइटोकॉन्ड्रियल में से किसी एक के साथ बढ़ती हैं और उम्र बढऩे के क्रममें विकसित होती रहती हैं जब तक कि वे अंतत: नष्ट नहीं हो जातीं।
सेल परमाणु या माइटोकॉन्ड्रियल में से किसे चुनेंगे और इसका निर्णय कैसे लेते हैं यह जानने के लिए वैज्ञनिकों ने प्रत्येक उम्र बढ़ाने वाली कोशिकाओं के मार्ग और उनके बीच के कनेक्शनों में मौजूद एटम सर्किट (Atom Circuit) की पहचान की। एक आणविक सर्किट का खुलासा करते हुए शोध के प्रमुख लेखक और कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के आणविक जीव विज्ञान के असिस्टेंट प्रोफेसर नान हाओ ने बताया कि सेल में मौजूद ये एटम सर्किट बिल्कुल घरेलू उपकरणों को नियंत्रित करने वाले विद्युत सर्किटों की तरह काम करते हैं। शोधकर्ताओं की टीम ने पाया कि वे इन कोशिकाओं की एटम सर्किट में हेरफेर कर इसकी दर को घटा और बढ़ा सकते हैं। इस तरह वे उम्र बढऩे की प्रक्रिया के मास्टर सर्किट को फिर से संगठित करने और इंसानी डीएनए को संशोधित करने के लिए कंप्यूटर सिमुलेशन का उपयोग कर सकते हैं। शोधकर्ताओं का मानना है कि इस प्रकार वे उम्र बढऩे की प्रक्रिया को धीमा करने में सक्षम हो सकते हैं।
उम्र बढऩे की गति को धीमा करने का एक ऐसा ही अध्ययन दक्षिण कोरिया (South Korea) में भी हुआ है। दक्षिण कोरियाई वैज्ञानिकों ने केंचुए पर ऐसे ही एक अध्ययन के दौरान ‘वीआरके-1’ और ‘एएमपीके’ नाम के दो ऐसे प्रोटीन की पहचान की है, जिनकी कार्य प्रणाली में मामूली बदलाव कर ढलती उम्र में पेश आने वाली समस्याओं को दूर किया जा सकता है। चूंकि, ये प्रोटीन मानव शरीर में भी पाए जाते हैं, लिहाजा इनकी मदद से इंसानों को भी लंबी उम्र की सौगात देने वाली दवाएं तैयार करना संभव हो सकता है।
कोरिया एडवांस्ड इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी के शोधकर्ताओं ने ‘कैनोरहैबडाइटिस एलिगन’ नस्ल के केचुओं को दो समूह में बांटा। पहले समूह में शामिल केंचुओं में ‘वीआरके-1’ और ‘एएमपीके’ प्रोटीन के उत्पादन की प्रक्रिया से कोई छेड़छाड़ नहीं की। लेकिन केंचुओं के दूसरे समूह की जेनेटिक संरचना में कुछ बदलाव किए, जिससे दोनों प्रोटीन ज्यादा मात्रा में पैदा हो सकें। इसके बाद दोनों समूह के केंचुओं से कड़ा शारीरिक श्रम करवाया, ताकि उनमें ऊर्जा का स्तर घटने लगे। शोधकर्ताओं ने देखा कि पहले समूह के केंचुए बुरी तरह से थककर चूर हो गए, जबकि दूसरे समूह के केंचुए बिल्कुल चुस्त नजर आ रहे थे। ‘वीआरके-1’ और ‘एएमपीके’ प्रोटीन का उत्पादन बढऩा इसकी मुख्य वजह था। दरअसल, दोनों प्रोटीन ग्लूकोज के ऊर्जा में तब्दील होने की प्रक्रिया को तेज कर देते हैं। इससे कोशिकाओं में ऊर्जा का स्तर बरकरार रखने में मदद मिलती है।
मुख्य शोधकर्ता संगसून पार्क के मुताबिक ‘वीआरके-1’ और ‘एएमपीके’ प्रोटीन का उत्पादन माइटोकॉन्ड्रिया की कार्यप्रणाली को सुचारु बनाए रखने में मददगार हैं। विभिन्न अध्ययनों में देखा गया है कि माइटोकॉन्ड्रिया की क्रिया का ढलती उम्र में होने वाली बीमारियों से सीधा संबंध है। इसमें कमी आने पर असामयिक मौत का खतरा कई गुना बढ़ जाता है। पार्क को उम्मीद है कि यह खोज लंबी उम्र की सौगात देने वाली दवाओं के निर्माण की नींव रखेगी।