22 दिसंबर 2025,

सोमवार

Patrika LogoSwitch to English
home_icon

मेरी खबर

icon

प्लस

video_icon

शॉर्ट्स

epaper_icon

ई-पेपर

इस मकान में की गई थी वंदे मातरम की रचना, राष्ट्रगीत का इतिहास जान कांप उठेगा रोम-रोम

1870 के दौरान हर जगह प्रमुख अवसरों पर ‘गॉड सेव द क्वीन’ इस अंग्रेजी गाने को गाना अनिवार्य था।

4 min read
Google source verification
History of Vande mataram song

इस मकान में की गई थी वंदे मातरम की रचना, राष्ट्रगीत का इतिहास जान कांप उठेगा रोम-रोम

नई दिल्ली। आज पूरे देश भर में 70वां गणतंत्र दिवस मनाया जा रहा है। पूरे देश भर में इस दौरान तमाम राष्ट्रभक्ति के गीत गाए जाएंगे। राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत की धुनों से पूरा हिंदुस्तान गूंज उठेगा। चारों ओर देशवासी वंदे मातरम के नारे लगाएंगे।

हम सब यह तो जानते हैं कि वंदे मातरम यानि कि हमारे राष्ट्रीय गीत की रचना बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने किया था। आज हम आपको इसी गीत के इतिहास के बारे में बताने जा रहे हैं जिसके बारे में आज भी अधिकतर लोगों को पता नहीं है।

सबसे पहले बता दें कि इस गीत की रचना 7 नवंबर, 1876 को पश्चिम बंगाल के उत्तर 24 परगना जिले में स्थित नैहाटी के कांठाल पाड़ा नामक मोहल्ले में स्थित उनके निवास स्थान पर किया गया जिसे वर्तमान समय में एक संग्रहालय में तब्दील कर दिया गया है।

साल 1838 में नैहाटी में एक समृद्ध बंगाली परिवार में पैदा हुए इस मशहूर साहित्यकार ने हुगली कॉलेज और कोलकाता के प्रेसीडेंसी कालेज में शिक्षा प्राप्त की। सन् 1857 में उन्होंने बी.ए. पास किया और 1879 में कानून की डिग्री हासिल की। यहां एक महत्वपूर्ण बात यह है कि उनकी शादी महज ग्यारह साल की उम्र में हो गई थी। कुछ सालों के अंदर ही उनकी पहली पत्नी का किसी कारणवश निधन हो गया जिसके बाद उन्होंने दूसरी शादी की। उनकी तीन बेटियां भी थीं।

शिक्षा ग्रहण करने के बाद अपने अफसर पिता की तरह कई सरकारी उच्च पदों पर नौकरी की और साल 1891 में सरकारी सेवा से रिटायर हो गए। जैसा कि आप जानते ही हैं कि उस जमाने में भारत पर अंग्रेजों का शासन था। ऐसे में 1870 के दौरान हर जगह प्रमुख अवसरों पर ‘गॉड सेव द क्वीन’ इस अंग्रेजी गाने को गाना अनिवार्य था। यह सब कुछ देखकर बंकिम चंद्र को बहुत बुरा लगता था।

1876 में उन्होंने इस अंग्रेजी गाने के विकल्प के तौर पर एक गीत की रचना की। इस गीत को संस्कृत और बांग्ला भाषा के मिश्रण से बनाया गया। शुरूआत में संस्कृत में इसके केवल दो पद रचे गए थे। गीत का शीर्षक दिया गया ‘वंदेमातरम्’

1882 में के उपन्यास आनंद मठ में इस गीत का प्रकाशन किया गया। उपन्यास में यह गीत भवानंद नामक एक सन्यासी के द्वारा गाया गया। यदुनाथ भट्टाचार्य ने इसकी धुन बनाई थी। अब गीत को लेकर शुरू होता है विवाद।

इस गीत में बंकिम चंद्र ने भारत को दुर्गा का स्वरूप माना और समस्त देशवासियों को मां की संतान। गीत में यह आग्रह किया जा रहा है कि अंधकार और पीड़ा से घिरी मां की रक्षा और उनकी वंदना बच्चे करें। अब चूंकि मां को एक हिंदु देवी का प्रतीक माना गया इस वजह से मुस्लिम लीग और मुस्लिम समुदाय के एक वर्ग को यह बात रास नहीं आई।

इसके साथ ही जैसा कि बताया गया कि गीत का प्रकाशन उपन्यास आनंद मठ में किया गया और इस उपन्यास की पृष्ठभूमि मुस्लिम राजाओं के खिलाफ सन्यासियों के विद्रोह की घटना पर आधारित थी। उपन्यास में दर्शाया गया है कि हिंदू सन्यासियों ने किस प्रकार से मुसलमान शासकों को हराया। इसके साथ ही आनंदमठ में बंगाल के मुस्लिम राजाओं की कड़ी आलोचना की गई।

ऐसे में इस विवाद से बचने के लिए भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू गीत को राष्ट्रगान के रूप में स्वीकार नहीं करना चाहते थे। जब नेहरू ने रवींद्रनाथ ठाकुर से इस बारे में राय मांगी तो उनका कहना था कि गीत के पहले की दो पंक्तियों को ही सार्वजनिक रूप से गाया जाए।

वैसे तो गीत की रचना काफी साल पहले ही हो गई थी लेकिन आनंद मठ के जरिए लोग इसे जानने लगे। 1896 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में इस गीत को पहली बार गाया गया। 1901 में कलकत्ता में ही हुए एक अन्य अधिवेशन में चरनदास ने इस गीत को दोबारा गाया।

1905 में बनारस में हुए एक अधिवेशन में सरला देवी ने गीत को अपना स्वर दिया। बंग-भंग आंदोलन में ‘वंदे मातरम्’ को राष्ट्रीय नारा बनाया गया। इसके अलावा भी आजादी के आंदोलन में इस गीत का भरपूर प्रयोग किया गया।

1923 में कांग्रेस अधिवेशन में लोग इस गीत पर आपत्ति उठाने लगे। उस समय पंडित जवाहर लाल नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आजाद, सुभाष चंद्र बोस और आचार्य नरेंद्र देव की समिति ने मिलकर 28 अक्टूबर 1937 को कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में पेश अपनी रिपोर्ट में कहा था कि इस गीत के शुरुआती दो पद ही प्रासंगिक हैं।

14 अगस्त 1947 की रात जब संविधान सभा की पहली बैठक की शुरूआत ‘वंदे मातरम’ गीत के साथ और समापन ‘जन गण मन’ के साथ किया गया।

15 अगस्त, 1947 को प्रातः 6:30 बजे आकाशवाणी से गीत का सजीव प्रसारण हुआ था।

भारत के स्वाधीनता संग्राम में इस गीत की भूमिका को देखते हुए 24 जनवरी, 1950 को संविधान सभा में डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने यह निर्णय सुनाया कि गीत के पहले की दो अंतराओं को ‘जन गण मन’ के समान मान्यता दी जाए।