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कानूनी सलाहकार की जांच पर लोकायुक्त में केस, कोर्ट से रद्द

कानूनी सलाहकार की जांच पर लोकायुक्त में केस, कोर्ट से रद्द

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हाई कोर्ट ने उज्जैन के मामले में दिया फैसला, भवन निर्माण की अनुमति देने संबंधी अफसरों पर दर्ज आपराधिक प्रकरण का मामला

हाई कोर्ट ने उज्जैन में नगर निगम के अफसरों द्वारा गलत तरीके से भवन निर्माण की अनुमति पर विशेष स्थापना पुलिस, लोकायुक्त में दर्ज आपराधिक मामले और उससे जुड़ी कार्रवाई को रद्द करने का आदेश दिया है। लोकायुक्त द्वारा कानूनी सलाहकार की जांच के आधार पर केस दर्ज किया था। कानूनी सलाहकार से जांच कराने को सही नहीं मानते हुए हाई कोर्ट की इंदौर खंडपीठ के न्यायाधीश विवेक रुसिया और प्रकाशचंद गुप्ता ने केस रद्द करने का फैसला दिया है।

विशेष स्थापना पुलिस, लोकायुक्त उज्जैन ने वर्ष 2021 में नगर निगम उज्जैन के सिटी प्लानर मनोज पाठक, बिल्डिंग ऑफिसर रामबाबू शर्मा और अरुण जैन, बिल्डिंग इंस्पेक्टर मीनाक्षी शर्मा और आरएम विनो एस्टेट डेवलपर्स कंपनी के डायरेक्टर सुशील जैन के खिलाफ भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धाराओंं में केस दर्ज किया था। केस के दौरान सुशील जैन का निधन होने पर कंपनी के अन्य डायरेक्टर मुकेश रांका का नाम शामिल किया गया। मामला विश्वविद्यालय रोड उज्जैन की जमीन का है। निजी कंपनी ने जमीन के 27 मालिकों से 30 हजार स्क्वेयर फीट जमीन खरीदी थी। बाद में एक को-ऑनर दिव्या सिंह ने जमीन में 600 स्क्वेयर फीट का मालिक बताते हुए सिविल सूट दायर किया था। कंपनी ने उज्जैन नगर निगम से भवन निर्माण की अनुमति हासिल की, जिस पर दिव्या सिंह ने निगम कमिश्नर के समक्ष आपत्ति ली, जो रद्द हो गई। उन्होंने लोकायुक्त को शिकायत की। आरोप था कि जमीन मास्टर प्लान में आवासीय है, लेकिन निगम अफसरों ने उसे व्यावसायिक सह रहवासी के तहत निर्माण अनुमति जारी कर दी। लोकायुक्त ने कानूनी सलाहकार को जांच सौंप दी और उन्होंने संबंधितों के बयान लिए। उनकी जांच रिपोर्ट पर लोकायुक्त उज्जैन में एफआइआर दर्ज हुई। सिविल न्यायालय में आरोप भी तय हो गए। आरोपियों ने हाई कोर्ट की शरण ली। हाई कोर्ट में कंपनी व आरोपियों की ओर से वरिष्ठ अभिभाषक अजय बागडि़या, वैभव जैन, मधुर शर्मा, अमोल श्रीवास्तव ने पैरवी की।

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लेन-देन की बात नहीं आई सामने

बागडि़या के मुताबिक, कोर्ट में तर्क दिया गया कि केस में मास्टर प्लान के विपरीत अनुमति देने का मामला है। किसी तरह के लेन-देन की बात सामने नहीं आई है, इसलिए भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम का मामला नहीं बनता है। कोर्ट ने अपने फैसले में एफआइआर व उससे संबंधित कार्रवाईयां रद्द कर दीं। कोर्ट ने फैसले में कहा, अगर कोई गलत अनुमति दी है तो उसे उच्च प्राधिकारी या अदालत द्वारा रद्द किया जा सकता है, लेकिन वही प्राधिकारी जिसने ऐसा आदेश पारित किया है, उसके खिलाफ भ्रष्टाचार अधिनियम के तहत मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है। मामले में रिट याचिका व सिविल मुकदमा दायर कर अनुमति को चुनौती दी जा सकती है। लोकायुक्त ने मामले में कोई जांच नहीं की, बल्कि प्रतिनियुक्ति पर भेजे गए उच्च न्यायिक सेवा के कानूनी सलाहकार से जांच कराई। कानूनी सलाहकार लोकायुक्त में केवल कानूनी सलाह देने के लिए तैनात हैं, उन्हें जांच अधिकारी के रूप में जांच नहीं करनी चाहिए।

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अन्य एजेंसी की मदद लें

लोकायुक्त किसी भी जांच के संचालन के लिए किसी अन्य अभियोजन एजेंसी की सेवाएं ले सकता है, लेकिन न्यायिक अधिकारियों की नहीं। वे केवल कानूनी राय देने के लिए तैनात होते हैं।