पेरिन दाजी को श्रद्धांजलि देने उमड़ा जनसमुदाय
इंंदौर. पेरिन दाजी के संघर्ष और जनता के लिए लडऩे पर शहर का मजदूर वर्ग मां की जगह रखता था। उन्हें मम्मी संबोधित करता था। होमी दाजी शुरू से आर्थिक तौर पर कमजोर थे, जबकि पेरिन दाजी काफी संपन्न परिवार से थीं। दोनों ने प्रेम विवाह किया था।
शादी के बाद पेरिन ने कभी भी पैसों की चिंता नहीं की। दाजी परिवार शकर खरीदने के पैसे नहीं होने पर गुड़ की चाय पीता था, लेकिन पेरिन ने किसी के सामने आर्थिक स्थिति जाहिर नहीं होने दी, बल्कि होमी दाजी की ताकत बनकर खड़ी रहीं। वे सेंट रेफियल्स स्कूल में बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाती थीं। रिटायरमेंट के बाद भी स्कूल में जाकर बच्चों को पढ़ाती रहीं। गरीब बच्चों को घर पर भी अंग्रेजी की नि:शुल्क शिक्षा देती थीं। उनके दिल में जो रहता था वही जुबान पर होता था। वे मजदूर, गरीब वर्ग को उनका हक दिलाने के लिए किसी से भी भिडऩे को तैयार रहती थीं। पार्टी के महिला मोर्चा का काम करने के दौरान कई बार पुलिस-प्रशासन के अफसरों से भिड़ीं। पहले बेटा गया और फिर बेटी, लेकिन वे मजदूरों को ही अपने बच्चे मानकर उनके लिए काम करती रहीं। इसी कारण वे सबकी पेरिन मम्मी थीं।
-कॉमरेड अतुल लागू,वरिष्ठ पत्रकार
होमी दाजी के हर संघर्ष में साथ रहीं
पेरिन दाजी का जन्म 25 नवंबर 1929 को संपन्न पारसी परिवार में हुआ था। 18 बरस की उम्र में कॉमरेड होमी दाजी से प्रेम विवाह कर उनके हर संघर्ष में साथ रहीं। पेरिन दाजी कॉमरेड होमी दाजी की पत्नी ही नहीं कॉमरेड भी थीं। इंदौर में भारतीय महिला फेडरेशन की स्थापना करने वाली साथियों में उनकी मुख्य भूमिका रही। वे इंदौर भारतीय महिला फेडरेशन की सचिव रहीं। होमी दाजी की मृत्यु के बाद उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और मेहनतकशों के हक में लडऩे आ गईं। शहरी लोक परिवहन बस के कंडक्टर, ड्राइवर के अधिकारों के लिए सामने से आती बस के सामने हाथ फैलाकर खड़ी होने वाली पेरिन दाजी गीता भवन अस्पताल के तृतीय-चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों, ऑटो चालकों, संविदा शिक्षकों, आशा कार्यकर्ता-आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं, जूनियर डॉक्टर्स, नगर निगम तृतीय श्रेणी कर्मचारियों के हक की लड़ाई और नर्मदा आंदोलन के संघर्ष में शामिल रहीं। हुकमचंद मिल में लोगों की झिड़कियों के बाद भी हर बैठक में पहुंचती थी। मिल मजदूरों को मुख्यमंत्री द्वारा नजरअंदाज किया तो भरी भीड़ में अकेली घुसकर काला झंडा दिखाया। यह काम पेरिन दाजी ही कर सकती थीं। अनेक महिलाओं, युवाओं को नौकरी पर लगवाने के अलावा हार्ट का वॉल्व बदलवाने के लिए पैसा इक_ा करवाना, किसी महिला को ब्यूटी पार्लर के लिए स्पेशल कुर्सी की व्यवस्था करवाना, निर्धन परिवारों के बच्चों की पढ़ाई के बंदोबस्त की जिम्मेदारी में अंतिम सांस तक लगी रहीं।
- सारिका श्रीवास्तव, राज्य सचिव, मप्र भारतीय महिला फेडरेशन
यादों की रोशनी में
मुझे इस बात की खुशी रहेगी कि कई साल पहले उन्होंने मुझसे फोन पर लंबी गुफ्तुगू की थी। दरअसल 2011 में आजादी के बाद नई बुलंदियों पर पहुंचे मेहनतकशों के आंदोलन की अजीम शख्सियत कॉमरेड होमी दाजी पर केंद्रित उनकी एक किताब ‘यादों की रोशनी में’ आई थी, जो उनके जीवन साथी थे। किताब की समीक्षा कथादेश में छपी थी, उसी को देखकर उन्होंने फोन किया था। किताब लौकिक अर्थों में होमी दाजी की जीवनी नहीं थी, इसमें उनकी जिंदगी की अहम घटनाओं का उल्लेख था, मगर वह पेरिन के जज्बे, जिजीविषा की भी कहानी थी। उनका बेटा-बेटी उनके सामने ही गुजर गए थे, लेकिन मजबूती से खड़ी थीं। जिंदगी से मायूस नहीं थीं। 78 साल की उम्र में हड़ताली कर्मचारियों के हक में बस के आगे खड़े होकर रोकने के लिए भी तैयार थीं। ऐसी तमाम मौन कुर्बानियों ने हमारी तहरीक को ही आगे बढ़ाया था।
-सुभाष रानडे, वरिष्ठ पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता