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कभी गांव वालों ने चंदा करके बनवाया था पासपोर्ट और अब जीत रहे हैं सोने के मेडल

संघर्ष और जुनून से कामयाबी का सफर...

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कभी गांव वालों ने चंदा करके बनवाया था पासपोर्ट और अब जीत रहे हैं सोने के मेडल

कभी गांव वालों ने चंदा करके बनवाया था पासपोर्ट और अब जीत रहे हैं सोने के मेडल

मनोज कुंडू की रिपोर्ट
इटारसी। कहते हैं कोई लक्ष्य मनुष्य के साहस से बड़ा नहीं...! ऐसे ही साहस और संघर्ष से जुड़ी कामयाबी की यह कहानी है होशंगाबाद जिले के छोटे से गांव ब्यावरा के रहने वाले जितेंद्र चौधरी की। जितेंद्र ने पन्द्रह साल की उम्र में शतरंज खेलना शुरू किया था। अब वह इंटरनेशनल प्लेयर हैं और दिल्ली चेस एसोसिएशन के ऑफिसर भी।

संघर्ष और जुनून से कामयाबी का तानाबाना बुनने वाले जितेंद्र अब कोराना काल में गुडगांव, दिल्ली, नोएडा, चेन्नई और मध्यप्रदेश के 100 से ज्यादा युवा खिलाडिय़ों को शह और मात की ऑनलाइन ट्रेनिंग दे रहे हैं, वह भी मुफ्त। 7 जून को उन्होंने ऑनलाइन चेस प्रतियोगिता भी आयोजित की, जिसमें देश-विदेश से 1400 खिलाड़ी शामिल हुए। जितेंद्र ने कहा कि जीवन में अच्छा बुरा समय आता-जाता रहता है। कठिन समय में धैर्य ही सफलता की कुंजी है।


ग्रामीणों ने चंदे से बनवाया था पासपोर्ट-
पिता चौकीदार थे। घर की माली हालत खराब थी। खुद का खर्च जितेंद्र कोचिंग पढ़ाकर निकालते थे। यूनिवर्सिटी में खेलकर जीतने के बाद जितेंद्र को मलेशिया जाना था तो गांववालों ने चंदा करके पासपोर्ट बनवाया था।

ऐसे शुरू हुआ शतरंज का सफर-
जितेंद्र बताते हैं कि स्कूल से जब वे घर लौटते थे तो गांव की चौपाल पर लोग शतरंज खेलते दिखते थे। यहीं खड़े रहकर घंटों वह शतरंज देखते और सीखते थे। फिर खेलने भी लगे। घर पर पिता को पता चला तो बहुत डांट पड़ी थी। पिता ने कहा था- जुआ, सट्टा की लत लगा रहे हो। जितेंद्र के समझाने पर माने की ये बुरा लत नहीं, खेल है।


श्रीलंका में जीता था गोल्ड-
कोचिंग और चंदे के सहारे जितेंद्र पांच बार शतरंज की राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में बरकतउल्ला यूनिवर्सिटी का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। 2009 में श्रीलंका में आयोजित कोलंबो इंटरनेशनल चेस फेस्टिवल में ब्रांज मैडल और 2011 में गोल्ड हासिल कर चुके हैं। कॉमनवेल्थ में भी भारत का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं।