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गांधी जी के पोते राजमोहन को देखने के लिए तो उमड़ती थी भीड़, लेकिन वोट नहीं मिले

जबलपुर लोकसभा चुनाव में गढ़े जाते थे मिथक    

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जबलपुर। संस्कारधानी ने कभी भी किसी के साथ भेदभाव नहीं किया। कोई भी कहीं से आया, उसे अपनाया और मान दिया। आधा दर्जन से अधिक सांसद ऐसे हुए जो स्थानीय नहीं थे, लेकिन वे जीते और राष्ट्रीय फलक तक चमके। पर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के पोते राजमोहन गांधी के साथ ऐसा नहीं हुआ। 1980 में सत्ता खोने के बाद मध्यावधि चुनाव में उतरी जनता पार्टी ने गांधी को जबलपुर लोकसभा सीट से उतारकर सभी को चौंका दिया।

इससे पहले राजमोहन गांधी का जबलपुर से कोई खास जुड़ाव नहीं था। जब वे नामांकन भरने आए तो पूरा शहर उमड़ पड़ा। उनपर राष्ट्रपिता की छवि भारी पड़ती रही। लोग उनसे मिलते और महात्मा गांधी के किस्से सुनाते थे। जहां से भी गुजरते देखने वालों का हुजूम उमड़ पड़ता। उनका मुकाबला बिहार से पत्रकारिता करने आए कांग्रेस प्रत्याशी मुंदर शर्मा से था। तब यही धारणा बन रही थी कि वे कमजोर साबित होंगे। लेकिन परिणाम कुछ और ही आया। इंदिरा लहर संस्कारधानी के वोटरों को जैसे बहा ले गई। राजमोहन गांधी को महज 29 प्रतिशत लोगों ने ही वोट किया। वहीं, मुंदर शर्मा 53 फीसदी वोट के साथ बड़ी जीत हासिल की। हालांकि शर्मा महज दो साल ही जबलपुर के सांसद रह पाए।

आकस्मिक निधन से सीट खाली हुई और कांग्रेस ने 1982 के उपचुनाव में यह सीट हार गई। लेकिन, गांधी की किस्मत ने नहीं साथ दिया, बाद में वे उपचुनाव में भाग्य आजमाने जबलपुर आए भी नहीं। अपनी हार का उन्हें हमेशा रंज रहा और मन की टीस निकालते कहा भी था कि बाहरी थे, इसलिए जनता ने स्वीकार नहीं किया। यह अलग बात है कि उनके पूर्ववर्ती शरद यादव दो चुनाव यहां से जीते थे और वे मूलत: होशंगाबाद के निवासी थे। दो साल बाद ही हुए उपचुनाव में मूलत: शहडोल के रहने वाले बाबूराव परांजपे भाजपा के पहले सांसद बने थे। राजमोहन गांधी को लेकर शहर में तरह-तरह के मिथ भी चला करते थे। लोग उनके लम्बे हाथ को लेकर अजानबाहु तक कहते थे। लेकिन, उन्होंने फिर कभी संस्कारधानी की ओर रुख नहीं किया।