8 दिसंबर 2025,

सोमवार

Patrika LogoSwitch to English
home_icon

मेरी खबर

icon

प्लस

video_icon

शॉर्ट्स

epaper_icon

ई-पेपर

होली में प्रतिमा दहन की परम्परा शहर से हुई शुरू

1952 में हुई थी शुरुआत, देश भर में फैली परम्परा

2 min read
Google source verification
होली में प्रतिमा दहन की परम्परा शहर से हुई शुरू

होली में प्रतिमा दहन की परम्परा शहर से हुई शुरू

जबलपुर। देश के हर शहर, गांव और जिले में होलिका की मूर्ति का प्रतीक रूप में दहन किया जाता है, दरअसल इस परम्परा की शुरूआत जबलपुर से मानी जाती है। 70 वर्ष पहले केवल संस्कारधानी में ही लकडिय़ों के ढेर के साथ प्रतीक के तौर पर होलिका की मूर्तियां जलाना शुरू किया गया था।
कल्चुरिकाल, गौंडकाल और फिर बाद में भौंसले शासन के दौरान भी होलिका दहन होता था, लेकिन तब उसमें मूर्ति नहीं होती थी। 1952 के बाद जबलपुर में अंधेरदेव के पास मूर्तिकारों ने होलिका की प्रतीकात्मक मूर्तियां बनाना शुरू किया।
इस प्रथा की शुरूआत की। अब शहर की बनी होलिका व प्रह्लाद की प्रतिमाओं की आसपास के शहरों में भी खासी डिमांड है। इस साल भी मूर्तिकार होलिका प्रतिमाओं को अंतिम रूप देने में जुटे हैं।
इतिहासकार डॉ. आनंद ङ्क्षसह राणा बताते हैं कि जबलपुर में होलिका दहन की परम्परा इतिहास के हर शासनकाल में थी। उस समय प्रतीकात्मक रूप से लकड़ी और कंडों को जलाकर लोग होली पर्व मनाते थे, लेकिन मूर्ति की स्थापना की शुरुआत संस्कारधानी से 1952 में हुई। होलिका का दहन लोग चित्रों में ही देख पाते थे। लेकिन इसका स्वरूप दिखाने के लिए वर्ष 1952 में जबलपुर के मूर्तिकार कुंदन प्रजापति ने पहल की। अंधेरदेव क्षेत्र में कुछ मूर्तिकारों के साथ उन्होंने पहली बार होलिका की मूर्ति तैयार की। इसके बाद अन्य मूर्तिकारों ने इस पहल को अपनाया और फिर शहर में होलिका की मूर्ति जलाने की शुरुआत हुई।
प्रह्लाद की भी बनती है मूर्ति
डॉ. राणा के अनुसार कुछ वर्षों बाद होलिका की मूर्ति के साथ भक्त प्रह्लाद की मूर्ति भी बनने लगी, जिसे होलिका दहन के पूर्व रस्सी से खींचकर होलिका की मूर्ति से हटा लिया जाता है। इससे होलिका की मूर्ति का दहन हो जाता है और प्रह्लाद की मूर्ति को बचा भी लिया जाता है। होलिका की मूर्तियों को विशेष रूप से लकड़ी और घास-फूस से तैयार किया जाता है।
अब बनती हैं आकर्षक मूर्तियां
शहर के रचनाधर्मी मूर्तिकार अब तरह-तरह की आकर्षक डिजाइन में होलिका की मूर्तियां बना रहे हैं। ये मूर्तियां छोटी से लेकर 11 फिट तक की बनती हैं। होलिका की प्रतिमाओं में मूर्तिकार सामाजिक संदेश भी देने का प्रयास करते हैं। होलिका की प्रतिमाओं को हास्य के लिहाज से तरह-तरह के हास्यास्पद परिधान व शृंगार से सजाया भी जाता है। ये मूर्तियां शहर से बाहर भी मंगाई जाती हैं। शीतलामाई निवासी मूर्तिकार संजय चक्रवर्ती कहते हैं कि होली में उन्हें हर साल बाहर से होलिका व प्रह्लाद की मूर्तियों के ऑर्डर मिलते हैं। इस वर्ष भी कटनी, नरङ्क्षसहपुर, गोटेगांव, सिवनी, लखनादौन, छपारा, मंडला, ङ्क्षडडोरी से ऑर्डर मिले हैं।
पहले कहीं नहीं देखी होलिका की मूर्ति
भेड़ाघाट स्थित हरे कृष्ण आश्रम के संस्थापक स्वामी रामचन्द्र दास बताते हैं कि उनकी उम्र 85 वर्ष है। उन्होंने 50 देशों की यात्रा के साथ देशभर का भ्रमण किया है, लेकिन पहले उन्हें जबलपुर के अलावा कहीं भी मूर्ति स्थापना देखने में नहीं मिली। यह परम्परा जबलपुर से ही शुरू हुई और अब बीते कुछ वर्षों से देश के विभिन्न हिस्सों के अलावा विदेशों में भी होलिका की मूर्ति स्थापना देखने मिल रही है। जबलपुर के होलिका दहन की ब्रज जैसी होली की तर्ज पर देशभर में अलग पहचान है।