
Prof. Dr. Vikash Agarwal
world brain day : आज बच्चे के जन्म से लेकर उसके बड़े होने तक की मैमोरी को कैप्चर करना हो या फिर उन्हें शांत कराकर बैठाना हो, पैरेंट्स मोबाइल, टीवी के सामने उसे बैठा देते हैं। वे जाने अनजाने अपने बच्चों को मानसिक रूप से कमजोर कर रहे हैं। हेल्दी ब्रेन वाले बच्चों में लर्निंग डिसेबिलिटी लगातार बढ़ रही है। वे ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिस्ऑर्डर का शिकार हो रहे हैं। नेताजी सुभाषचंद बोस मेडिकल कॉलेज में पांच साल पहले तक छह महीनों में एकाध केस सामने आते थे, लेकिन अब हर महीने एक दर्जन के करीब केस पहुंच रहे हैं। जो कि चिंता का विषय है।
नेताजी सुभाषचंद बोस मेडिकल कॉलेज के एचओडी एवं पीडिएट्रिक सर्जन प्रो. डॉ विकेश अग्रवाल ने बताया बच्चों में दो तरह की बीमारियां होती हैं पहली मानसिक बीमारी है जिसे साइकेट्रिक इलनेश कहते हैं। ये वो बीमारियां होती हैं जो ब्रेन में कैमिकल चेंजेस से होती हैं। लेकिन हम जिस बारे में बात कर रहे हैं उसे लर्निंग डिसेबिलिटी कहा जाता है। यह एक तरह का डेवलमेंट डिसऑर्डर है। इसमें बच्चों का ब्रेन पूर्ण क्षमता से काम नहीं करता है। इससे उसका सोचना, समझना, लिखना, पढऩा और बातें करने के साथ ही सीखने की क्षमता धीरे-धीरे खत्म होती है।
डॉ.विकेश अग्रवाल ने बताया आजकल छोटे बच्चों में यह समस्या सबसे ज्यादा बढ़ रही है। एकाग्रता के साथ लॉजिकल थिंकिंग, क्रिएटिविटी भी कम हो रही है। आज के बच्चों को स्क्रीन एज चिल्ड्रन कहा जाता है। जिन्हें पैदा होते ही उन्हें मोबाइल से संपर्क कराया जा रहा है। जिससे यह बीमारी उन्हें पकड़ रही है। पैरेंट्स अपना समय बचाने के लिए मोबाइल पकड़ा देते हैं, ये क्रम उम्र के साथ बढ़ता जा रहा है। एक रिसर्च के अनुसार आज के बच्चों का तीन घंटा एवरेज स्क्रीन टाइम है। जो वैज्ञानिक रूप से नुकसानदायक है। इससे सोचने समझने व काम करने की क्षमता कम होने के साथ क्रिएटिविटी जीरो हो रही है।
स्क्रीन टाइमिंग कई मामलों में यह बड़ा रूप लेकर ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिस्ऑर्डर का शिकार बना रही है। इसके शुरुआती दौर में बच्चा एकांत में रहने लगता है। बच्चा आंख मिलाकर बात नहीं करता। एक ही काम को बार बार करता है। वह नया नहीं सीखता, लर्निग में पीछे हो जाता है। ऐसे में तत्काल बच्चे के डॉक्टर से संपर्क करना चाहिए। कम उम्र यदि से पकड़ लिया जाए तो उसे ठीक किया जा सकता है। एक साल से 10 साल तक के बच्चों में ऐसा पाया गया है कि एक घंटे से ज्यादा स्क्रीन टाइम देता है तो उसमें ऑटिज्म स्पेक्ट्रमडिस्ऑर्डर होने की संभावना बढ़ जाती है।
डॉक्टर के अनुसार अब मोबाइल ही नहीं आईपैड, टीवी का स्क्रीन टाइम भी इसमें शामिल है। इसके लिए पैरेंट्स को खुद भी कंट्रेाल करना होगा। डब्ल्यूएचओ की रिसर्च के अनुसार छोटे बच्चों का आधा घंटे से लेकर 45 मिनट अधिकतम स्क्रीन टाइम रहे। पढ़ाई के लिए यदि जरूरत है तो एक घंटे का समय 5 से 10 वर्ष के बच्चों के लिए रखना चाहिए।
डॉ. विकेश अग्रवाल का कहना है कि आने वाले दस सालों में बहुत से बच्चे ऑटिज्म का शिकार होंगे। पहले छह माह एक या दो केस आते थे, अब हर महीने आठ से दस शुरुआती केस आ रहे हैं। जैसे ही बच्चे में रिपिटेटिव बिहेवियर दिखे तो उसे तत्काल चाइल्ड स्पेशलिस्ट को दिखाएं। ध्यान रहे ये साइकेट्रिक केस नहीं हैं, इसलिए उन्हें चाइल्ड स्पेशलिस्ट को ही दिखाया जाना चाहिए।
Published on:
22 Jul 2025 11:08 am
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