26 दिसंबर 2025,

शुक्रवार

Patrika LogoSwitch to English
home_icon

मेरी खबर

icon

प्लस

video_icon

शॉर्ट्स

epaper_icon

ई-पेपर

अभावों को मात दे रहे धनुर्धर

जनजाति बाहुल्य क्षेत्र धनुर्विद्या का धनी है। यहां अभावों से निकलने के बावजूद एकलव्यों ने राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गोल्ड मेडल पर अचूक निशाना साधा है।

3 min read
Google source verification

image

DeenDayal Sharma

Jul 13, 2015

जनजाति बाहुल्य क्षेत्र धनुर्विद्या का धनी है। यहां अभावों से निकलने के बावजूद एकलव्यों ने राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गोल्ड मेडल पर अचूक निशाना साधा है।
गांव की गरीबी एवं संसाधनों की कमी में जैसे-तैसे वर्ष दर वर्ष प्रतिभाएं आगे बढ़ रही हैं। अब इनकी तमन्ना यही है कि तीरंदाजी में देश का नाम रोशन हो और यहां की अधिक से अधिक प्रतिभाएं आगे बढ़ें। राजस्थान पत्रिका ने तीरंदाजों का अतीत जाना तो अब तक के सफर में संघर्ष की दास्तां भी सामने आई।
ये बढ़े आगे
तीरंदाजी में वागड़ की कई प्रतिभाओं ने गोल्ड मेडल हासिल किया है। तीरंदाजी में नंदकिशोर, लालसिंह, विश्राम सिंह, धुलचंद, राजेश तंबोलिया, बलवंत कटारा, जयसिंह, राकेश निनामा, पारसमल, कांतिलाल, राकेश निनामा, रमेश निनामा, गणेश चरपोटा, लक्ष्मण निनामा आदि ने कई उपलब्धियां अर्जित भी की है। इसके अलावा कई प्रतिभाएं इस क्षेत्र में आगे भी बढ़ रही है।
मां ने जेवर गिरवी रखकर बढ़ाया आगे
बांसवाड़ा के छोटी सरवन के छोटे से गांव नापला की प्रतिभा वकीलराज डिंडोर ने भी तीरंदाजी के संसाधनों को लेकर काफी संघर्ष किया है। वे बताते है कि शुरू से इस क्षेत्र में आगे बढऩा था। आर्थिक तंगी के हालातों में डेढ़ से दो लाख के उपकरण जुटाना आसान नही था, लेकिन मां ने मुझे आगे बढ़ाने के लिए अपने जेवर तक गिरवी रख दिए। वे बताते है कि स्कूल स्तर पर तीरंदाजी के पर्याप्त संसाधन उपलब्ध होने चाहिए, ताकि गरीबी के बाद भी प्रतिभाएं आगे बढ़ पाएं। वकीलराज वर्तमान में आर्मी स्पोट्र्स इंस्ट्रीट्यूट पुणे में हवलदार है। हाल ही में उनका चयन तीरंदाजी के वल्र्ड कप के लिए हुआ है। वे 6 से 14 सितंबर तक कोलम्बिया में होने वाले तीरंदाजी वल्र्ड कप में हिस्सा लेंगे।
पिता की मृत्यु पर चेहरा नहीं देख पाया था
बांसवाड़ा के कुशलगढ़ के नागदा गांव के धनेश्वर मईड़ा ने भी अभावों से निकलकर तीरंदाजी में बेहतर मुकाम पाया है। गरीबी में जन्मे धनेश्वर के पिता की मृत्यु 1988 में हुई, जब वे दिल्ली में थे। वे अंतिम संस्कार से पूर्व पिता का चेहरा भी नहीं देख पाए थे, जब घर आए तो हालात के मद्देनजर खेत में काम करने का मानस बनाया, लेकिन मां ने हौसला बढ़ाया व वापस दिल्ली पहुंचे। यहां 1989 में भारतीय खेल प्राधिकरण नई दिल्ली में खिलाड़ी के रूप में चयन हुआ था। 1991 में दुर्घटना में हाथ टूटा तो वे भी पूरी तरह से टूट गए, लेकिन ऑपरेशन के बाद फिर से उठ खड़े हुए और आगे बढ़े। वर्तमान में धनेश्वर राजस्थान स्टेट स्पोट्स काउंसील में आर्चरी के कोच हैं। उनकी तमन्ना देश का नाम आर्चरी में रोशन करने की है।
गरीबी से निकला तीरंदाज
बांसवाड़ा के केवडि़या गांव के तीरंदाज श्यामलाल मीणा ने गरीबी एवं समस्याओं के बीच अपना जीवनयापन करने के बावजूद वागड़ का नाम रोशन किया है। अर्जुन पुरस्कार, महाराणा प्रताप पुरस्कार, चाइना में गोल्ड, स्वीजरलैण्ड में पांच गोल्ड मेडल सहित कई उपलब्धियां श्यामलाल की झोली में है। मीणा वर्तमान में राजस्थान राज्य परिषद की ओर से बतौर कोच के पद पर सेवाएं दे रहे श्यामलाल को पीड़ा है कि राज्य में तीरदंाजों के लिए पर्याप्त आधुनिक संसाधन उपलब्ध नहीं हो रहे है। वे बताते हैं कि राज्य में तीरंदाजी के क्षेत्र में अनेक प्रतिभाएं है, उनको आगे बढ़ाने के लिए सरकार को संसाधन मुहैया कराने पर ध्यान केंद्रित करना होगा, ताकि आने वाले समय में अच्छे तीरंदाज आगे आ सके।
पेड़ की टहनियों से बनाए तीर-कमान
अर्जुन अवार्ड, खेल रत्न, बिहार सरकार का बेस्ट प्लेयर अवार्ड सहित कई गोल्ड-सिल्वर मेडल अंतरराष्ट्रीय तीरंदाज लिंबाराम की तरकश में हैं। मूलत: झाडौल क्षेत्र के लिम्बाराम फिलहाल डूंगरपुर जिला खेलकूद अधिकारी के पद पर कार्यरत है। गरीब परिवार में जन्मे लिंबाराम बचपन से धुन के पक्के रहे। शुरुआती दिनों में पेड़ों की टहनियों से तीर-कमान बनाकर अभ्यास किया। परिवार की तंगी केबावजूद तीरंदाजी के जुनून ने उन्हें पहले राज्य फिर राष्ट्र और बाद में अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पहुंचाया। वर्ष 1998 से 2003 तक हुई वल्र्ड कप प्रतियोगिताओं में भारत की ओर से प्रदर्शन किया, तो वर्षों तक अंतरराष्ट्रीय आर्चरी चैंपीयनशीप में गोल्ड-सिल्वर के तमगे लगे। इन दिनों लिंबाराम इस क्षेत्र में अपनी जैसीही प्रतिभाएं तराशने में जुटे हुए हैं।
लिंबाराम से लिया था धनुष
पिता किसान। कवेलूपोश मकान। बमुश्किल दो वक्त रोटी का गुजारा। पर, डूंगरपुर जिले के बिलड़ी गांव के जयंतीलाल ननोमा ने धर्नुविद्या का ऐसा धनी निकला कि उसने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पटल पर वागड़ का नाम रोशन किया। सीमित संसाधनों के बावजूद जयंती ने 25 से अधिक राष्ट्रीय एवं दस अंतरराष्ट्रीय मैडल जीते हैं। वर्ष 2003 में जमेशदपुर में नेशनल हुआ,तो जयंती के पास अपना धनुष तक नहीं था। अंतरराष्ट्रीय तीरंदाज लिम्बाराम से धनुष लिया और काम चलाया। वर्ष 2006 में नेशनल चेम्पियन के लिए बैंकॉक जाना था। पर,धनुष नहीं था। इस पर विधायक सुशीलकटारा ने धनुष दिलाया और जयंती स्वर्ण पदक जीत कर आया। वर्तमान में जयंती डूंगरपुर में प्रशिक्षण के रूप में कार्यरत हैं।
आडीवाटगांव से निकला अर्जुन
एक छोटा सा गांव, जहां न बिजली थी और न पानी की सुविधा। स्कूली शिक्षा भी प्राथमिक स्तर की। पर, वहीं से निकला एक ऐसा अर्जुन,जिसने सफलता अपने अचूक निशाने से पाई। डूंगरपुर के आडीवाट गांव के नरेश डामोर की हो रही है,जिसने तीरंदाजी में अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पहचान बनाई। नरेश की प्रमुख उपलब्धियों में2005 में आचर्री ग्रांट पिक्स बैंकॉक व गोल्डन एरो यूरोपियन ग्रांट पिक्स तुर्की, 43वीं वल्र्ड आर्ची चेम्पियनशिप स्पेन सहित कई प्रतियोगिताएं हैं। वागड़ के इस अर्जुन ने निशाना साधा। फिलहाल नरेश उदयपुर में बतौर प्रशिक्षक राजकीय सेवा में है। प्रतिभाओं को तराश कर राष्ट्र्र एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पहुंचाने का बीड़ा उठा रहे हैं।