
jaipur
जयपुर. बहुत अजीब दौर है यह, जब नई पीढ़ी बहुत जल्द पुरानी हो जाती है और पुरानी पीढ़ी को महज तभी तक काम का समझा जाता है, जब तक कि वह सिक्कों की खनखन जुटा सके और जब ऐसा होता है, तो सिक्कों की धुन पर न केवल ‘राग मारवा’ जैसी कहानी सामने आती है, बल्कि इसी नाम से एक पूरा का पूरा कहानी संग्रह हमारे सामने होता है, जो बदलते वक्त की बनती-बिगड़ती धुनों को सामने रखने की कोशिश करता है, बता दें कि यह कोशिश ममता सिंह की है।
ममता सिंह वो नाम, जिसे लोग रेडियो सखी के तौर पर भी जानते हैं। जिस तरह उन्होंने अपनी आवाज के तिलिस्म को शब्दों में उतारा है, उससे एक उम्मीद बनती है कि आगे भी कई बेहतर रचनाएं सामने आएंगी। राजपाल एंड संस से प्रकाशित इस संग्रह को मध्यप्रदेश के प्रतिष्ठित वागीश्वरी पुरस्कार से नवाजा जा चुका है। इस संग्रह में ग्यारह लंबी कहानियां हैं।
शीर्षक कहानी ‘राग मारवा’ एक उम्रदराज गायिका कुसुम जिज्जी की कहानी है, जिसके गले में अब वो सुर न रहे, जो उसे मंच पर उतरने का साहस दिया करते थे, फिर भी बहू उनके लिए कॉन्ट्रेक्ट जुटाने में लगी रहती है। पैसा आता रहता है, जिज्जी गाती रहती हैं, सुरों को संभालने में जुटी रहती हैं और जुटा लेती है एक घर परिवार के लिए, पर यहां भी उसे चैन कहां!
संग्रह की अन्य कहानियां भी अपने समय की बेचैनियों का लयात्मक दस्तावेज है। ‘गुलाबी दुपट्टे वाली लडक़ी’ भी ऐसी ही बेचैन कहानी है, उस स्त्री की कहानी है, जो अपने कोख में एक बीज चाहती है और फिर उसे ही एक प्रयोगशाला में तब्दील करने पर मजबूर हो जाती है, एक सवाल छोड़ जाती है कहानी कि क्या औरत सिर्फ बच्चा पैदा करने की मशीन है! ‘जनरल टिकट’ भी पितृसत्तात्मक सोच पर प्रहार करती हुई कहानी है।
ममता की कहानियों में मेट्रो शहर की मुश्किलें भी नजर आती हंै। कामकाजी माता-पिता की मजबूरियों ने नन्हों के हिस्से क्रेच दे दिया है, क्या हो जो एक रोज वो अकेला वहां से निकल जाए! ‘फैमिली ट्री’ अभिभावकों के मन में चल रही उथल-पुथल को बयां करती है। ‘धुंध’ और ‘लोकेल’ भी मेट्रो कल्चर को पेश करती है।
‘आखिरी कॉन्ट्रेक्ट’ इस संग्रह की बहुत महत्वपूर्ण कहानी है। दो लोगों का प्रेम यूं तो हमेशा ही समाज को खटका है, लेकिन जब प्रेमियों के धर्म जुदा हो, तो हालात और भी मुश्किल हो जाते हैं। बिंदी और बुर्के की बहस के बीच एक हिंदू लडक़ी किस तरह एक मुस्लिम लडक़े से अपने प्रेम को निभाती है, उसे दिल छू लेने वाले अंदाज में पेश किया गया है इस कहानी में। इस नाजुक वक्त में जब समाज धीरे-धीरे अपनी संवेदनशीलता खो रहा है, ऐसी कहानियां जरूरी-सी लगती हैं।
‘आखिरी कॉन्ट्रेक्ट’ कहानी से एक अशं-
खुद से गुफ्तगू करते हुए मैं अलगनी पर टंगे कपड़े एक-एक कर उतारती हूँ और बालकनी में सिर्फ रंग-बिरंगे पिन सजे रह जाते हैं। यह आने वाले अगले परिवार के काम आएगी। रंग-बिरंगे पिन हमारी विदाई से उदास हो गए हैं।
अब यादों के बड़े काफिले से मैं अपना दामन छुड़ाना चाहती हूं पर कहां...! उदासी के बादल ने मेरी आंखों और चेहरे को भिगो डाला है। धुंधलाई आंखों को झटपट पोंछती हूं, कहीं यहां से लौट जाने का फैसला बदल कर आफताब को कमजोर न कर बैठूं, अब यहां रहने का ना तो हौसला बचा है ना ही मन... अब बचा ही क्या है यहां... समाज के ठेकेदारों को धता बताते हुए, दिलों की दरारों को जोडक़र तिनका तिनका आशियाना बनाया था, वह भी तार-तार नष्ट हो गया फिर इस शहर से दूर जाने का अफसोस कैसा...।
मूवर्स एंड पैकर्स के कर्मचारी जो टी-ब्रेक पर गए थे वापस आकर तैनात हो गए हैं, मैनेजर ने सामान की गिनती कर कई पन्नों का दस्तावेज मुझे थमाया ठीक घर के कॉन्ट्रैक्ट की तरह। जैसे यही हो हमारा आखिरी कॉन्ट्रैक्ट... इन कर्मचारियों ने बड़ी ही मुस्तैदी और फुर्ती से ट्रक पर सामान लोड किया। आफताब का चेहरा ज्यादा ही मायूस है। किसी भी शहर को छोड़ते हुए हम जैसे खुद से जुदा होते हैं। शहर के साथ-साथ हम जिंदगी के तमाम निजी लम्हों से, तमाम यादों से भी जुदा होते हैं।
‘चलो आज इस शहर के महासागर को आखिरी बार सलाम कर लें...’ - आफताब अपनी पीड़ा और लाचारी को छुपाते हुए बोले।
Published on:
10 Aug 2019 08:33 pm
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