
कोमा में जाती अर्थव्यवस्था को ऑक्सीजन देने की कवायद
राजेंद्र शर्मा, जयपुर। केंद्रीय वित्त मंत्री ( Finance Minister ) निर्मला सीतारमण ( Nirmala Sitaraman ) ने इन दिनों में जो उपाय ढहती अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए सुधार के नाम से किए, वो दर्शाते हैं कि उन्होंने दो महीने पहले ही पेश बजट ( Budget ) में किए गए कई प्रावधान पर यू-टर्न ( U-turn ) ले लिया है। यह तथ्य बजट बनाने में शामिल थिंक टैंक ( Think Tank ) की दूरदर्शिता पर सवाल उठाता है। जाहिर है, या तो वित्त मंत्रालय और सरकार के अर्थशास्त्री अगले 30-40 दिन में देश की आर्थिक सेहत बिगड़ने का अंदाजा नहीं लगा पाए या जानते-बूझते चुप्पी साधे रहे। तभी तो सरकार को दो ही महीने में बजट में लगाए गए सुपर रिच टैक्स ( Super Rich Tax Surcharge ) हटाने जैसे कदम उठाने पड़े।
अब वित्त मंत्री ने सरकारी बैंकों के मर्जर का एलान किया। इससे साल 2017 में जहां 27 सरकारी या कहें सार्वजनिक सेक्टर के बैंक थे, वो अब घटकर महज 12 रह गए। इससे या उन उपायों से, जो पहले किए गए, सार्वजनिक क्षेत्र के डूबते उपक्रमों, बड़ी कंपनियां, घाटे के भंवर में फंसे रीयल एस्टेट कारोबार इत्यादि को कैसे बूस्ट किया जा सकेगा, इसका कोई दावा नहीं कर रहा।
अपनों ने दिखाया था आईना
सरकार को हिचकोले खाती अर्थव्यवस्था की तब ही सुध ले लेनी चाहिए थी, जब पिछले साल इन्हीं दिनों में केंद्र सरकार के ही तत्कालीन (बाद में इस्तीफा दे दिया) मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम ने जीडीपी को लेकर आईना दिखाया था कि 2013 से 2017 तक जीडीपी वास्तविकता से 2 से 2.5 प्रतिशत ज्यादा दिखाई जा रही है। इसी तरह, रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल, डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य जैसे वित्त विशेषज्ञों ने भी ऐसा किया। हाल ही में नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार ने जब वर्तमान आर्थिक हालात 70 साल के बदतरीन बताए, तब सरकार चौंकी। कुछ कदम उठाए, लेकिन इस कदमों से बाजार में आम उपभोक्ता कैसे उत्साह से खरीदारी के लिए आएगा, इस पर कोई सरकारी अर्थशास्त्री आशा जगाने वाला प्रकाश नहीं डाल रहे, या इससे बचने का प्रयास कर रहे हैं।
सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम खस्ता हाल
सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की हालत लगातार खस्ता हो रही है। लगता है या इनकी जानकर अनदेखी की जा रही है या सभी को निजी हाथों में थमाने की सोची-समझी योजना पर अमल की कोशिश है। आंकड़े देखें तो इन उपक्रमों की वार्षिक वृद्धि दर 1991 से 95 तक 16.7 फीसदी रही, 2002 में 16, 2012 में 13.5 और अब महज 2.6 प्रतिशत रह गई। टैक्स के बाद नफे की बात करें तो 1991 से 95 तक 44.2 फीसदी, 2002 में 20, 2012 में 0 (नो प्रॉफिट-नो लॉस) था, जो 2019 में माइनस 16.6 प्रतिशत रहा यानी उपक्रम 16.6 प्रतिशत घाटे मेें रहे। कॉर्पोरेट सेक्टर में देशी की स्थिति (कुछेक को छोड़कर) कमोबेश घाटे की ही रही, जबकि पिछले कुछ साल में विदेशी कॉर्पोरेट का मुनाफा काफी घट गया।
अब बैंकों का विलय
अब बैंकों का विलय किया जा रहा है। पहले हुए मर्जर के बाद उत्साहजनक परिणाम मिलते तो ठीक था, लेकिन विपरीत मिले। जून 18 से जून 19 तक देश में सरकारी बैंकों के 5500 एटीएम के ताले लगे, तो 600 शाखाएं बंद हो गई। अकेले स्टेट बैंक आॅफ इंडिया ने 420 शाखाएं और 768 एटीएम बंद किए। जाहिर है, कइयों की नौकरियां भी गई होंगी। फिलहाल, सरकारी बैंक एक्सपेंडिचर घटाने की कोशिश कर रहे हैं, क्योंकि बैड लोन और सुस्त लोन ग्रोथ के कारण मुनाफा दर्ज करना मुश्किल हो गया था। अब यह नया मर्जर क्या रंग लाएगा यह समय ही बताएगा।
बहरहाल, एक बात तय है कि जब तक आम उपभोक्ता के हाथ में पैसा नहीं आएगा यानी परचेजिंग पावर नहीं बढ़ेगी तब तक मांग नहीं बढ़ेगी और मांग नहीं बढ़ेगी तो कितने भी उपाय किए जाएं, सतही ही साबित होंगे।
Updated on:
30 Aug 2019 07:57 pm
Published on:
30 Aug 2019 07:56 pm
बड़ी खबरें
View Allजयपुर
राजस्थान न्यूज़
ट्रेंडिंग
