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Rajasthan Election: उदयपुर से बांसवाड़ा- पहाड़ सी समस्याएं…पानी के लिए हर रोज जद्दोजहद !

Rajasthan Assembly Election 2023: पास में ही एक कुआं था जो उनके घर से करीब एक किलोमीटर दूर था। आदिवासी बाहुल्य इस गांव के अधिकांश पुरुष रोजगार के सिलसिले में गुजरात चले गए हैं। घर पर सिर्फ महिलाएं, बच्चे और बड़े-बुजुर्ग हैं।

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Ground report

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अभिषेक श्रीवास्तव/बांसवाड़ा. उदयपुर से बागीदौरा और फिर वहां से कुशलगढ़... 230 किलोमीटर के सफर में छितराए हुए पहाड़ों के बीच से गुजरता रास्ता एक ओर गुजरात की सीमा को छूने को बेताब था तो दूसरी ओर मध्यप्रदेश की सीमा लगने वाली थी। मैं पहुंच चुका था कुशलगढ़ विधानसभा के छोटा डूंगरा गांव में। सड़क के पास महिलाएं सिर पर पानी के बर्तन रखे दिख गईं। पास में ही एक कुआं था जो उनके घर से करीब एक किलोमीटर दूर था। आदिवासी बाहुल्य इस गांव के अधिकांश पुरुष रोजगार के सिलसिले में गुजरात चले गए हैं। घर पर सिर्फ महिलाएं, बच्चे और बड़े-बुजुर्ग हैं।

गाड़ी रुकवाकर मैं भी कुएं के पास पहुंचा। वहां पानी भर रही सविता ने बताया कि घर के लोग बापी, सूरत और दाहोद काम के सिलसिले में चले जाते हैं। घर पर हम ही रहते हैं। गर्मी के साथ पानी की समस्या भी बढ़ती जाती है। पूछा कि क्या घरों तक हैंडपंप अथवा नल नहीं हैं तो जवाब मिला-कुछ जगह लगे हैं, लेकिन अधिकांश आबादी अब भी परेशान है। सरकार अगर माही से नहर निकाले तो हमारी खेती-बाड़ी के साथ ही पानी की समस्या भी दूर हो जाएगी। थोड़ी दूर सड़क पर एक और युवक गड्ढे से मटमैला पानी भरते दिखा। पूछने पर बताया कि अनास नदी से यह पानी आ रहा है। आगे बाजार में नल लगे हैं, लेकिन पानी सिर्फ निचले इलाके में आता है। मवेशियों के लिए हमें यहीं से पानी ले जाना पड़ता है। दरअसल, रास्ते में जिन भी लोगों से बात की वे सरकारी योजनाओं पर कम रोजगार के अवसर पर अधिक चर्चा करना चाहते हैं।

चूनिया चोका चाहता है नहर:

यहां से आगे बढ़ा और डूंगरा बाजार पहुंचा। बहुत छोटा सा बाजार। कुछ ही दुकानें। यहां बैठे कुछ लोग घर जाने का इंतजार कर रहे थे। धीरे-धीरे शाम भी हो चुकी थी। सोचा चाय पीकर कुशलगढ़ बाजार पहुंच जाऊं। तभी वहां सिर पर नीले और सफेद रंग का फेटा बांधे चूनिया चोका से मुलाकात हो गई। हंसमुख किस्म के चूनिया राजस्थान के अंतिम गांव के निवासी हैं, यह गांव गुजरात दाहोद के बॉर्डर पर बसा है। इनका कहना था कि खेती-बाड़ी के लिए नहर मिल जाए तो बेहतर होगा। चूनिया की समस्या भी पलायन से ही जुड़ी थी। सरकारी योजनाओं के विषय में बोले कि कोई कुछ बताता ही नहीं है। खैर तकरीबन 18 किलोमीटर की दूरी तय कर मैं कुशलगढ़ बाजार पहुंचा। शाम के सात बज चुके थे। लगभग 50-60 दुकानों के बाजार में एक छोटा सा बस स्टैंड है, जिसकी हालत बद से बदतर दिख रही थी। कार्यालय के नाम पर यहां नगर पालिका, तहसील, थाना और जेल है।

जीप में बारात:

मिश्रित आबादी के इस बाजार क्षेत्र में शादियों के मौसम के कारण भीड़ अच्छी थी। ओवरलोड जीप से बारात जाते हुए दिख रही थी। इस आदिवासी क्षेत्र में यातायात के साधनों का अभाव साफ नजर आया। यहीं हमने यात्रा को विराम दे दिया।

300 से 400 रुपए की दिहाड़ी के लिए...

कुशलगढ़ जाते समय रास्ते में बागीदौरा बाजार में भी मैं कुछ देर के लिए रुका। यहां बिल्डिंग मैटेरियल की दुकान पर काम करने वाले भरत राव का कहना था कि यहां के हालत देख लें। दिनभर धूल का गुबार उड़ता रहता है। भरत की भी समस्या वही थी, जो मुझे पूरे रास्ते महसूस हुई। भरत ने कहा कि स्थानीय स्तर पर 200 रुपए तक दिहाड़ी मिलती है। ऐसे में पलायन ही एक मात्र रास्ता बचता है। गुजरात में 300 से 400 रुपए मजदूरी आसानी से मिल जाती है। इसलिए यहां के लोग वहां चले जाते हैं।

सामने सड़क देखो...साढ़े चार साल लग गए

दरअसल, उदयपुर से कुशलगढ़ जाने के रास्ते में सबसे पहले मैं 152 किलोमीटर की दूरी तय कर पलोदा बाजार पहुंचा था। इसका जिक्र इसलिए कि यहीं से बांसवाड़ा जिले की सीमा प्रारंभ होती है। पलोदा बाजार में पहुंचते ही पहली नजर राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे हरदेव जोशी की प्रतिमा पर पड़ती है। यहां से आगे जैसे ही गढ़ी पहुंचे, वहां तहसील कार्यालय के बाहर पूर्व सरपंच परथाबा से मुलाकात हो गई। उनसे सवाल पूछना चाहा तो कहा कि आप सामने वाली निर्माणाधीन सड़क को देखो। इसे बनने में साढ़े चार साल लग गए। हालांकि आदिवासी बाहुल्य बांसवाड़ा क्षेत्र की सभी ग्रामीण विधानसभाओं में समस्याएं एक समान ही मिलीं।