ये बोल बेतुके
हाल ही में केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री रमेश पोखरियाल ने बेरोजगारी की समस्या का दोष उन युवाओं पर थोप दिया जो बीएड करते हैं। बोले, जिसे कोई नौकरी नहीं मिलती वह बीएड कर बेरोजगारों की फौज बढ़ाता है, अब सरकार ऐसे नियम बनाएंगे कि शिक्षक बनना आईएएस बनने से ज्यादा कठिन हो जाएगा। ऐसे ही केंद्रीय स्वास्थ्य राज्य मंत्री अश्विनी कुमार चौबे का बयान ‘आयुष मंत्रालय गोमूत्र से दवाई बनाने का काम कर रहा है’ भी चर्चा का विषय रहा। तो, लोकसभा चुनाव में एक साध्वी का अपने प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार का ‘आतंकी’ कहना, मुंबई आतंकी हमले में शहीद हेमंत करकरे की शहादत को अपने ‘श्राप’ बताना, भिक्षाटन को आय का जरिया बताना, नाली और शौचालय की साफ करवाने के लिए सांसद नहीं बने बोलना…बेतुके पर की हदें पार करता है। ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं। हो भी क्यों न, इन लोगों का नेतृत्व भी ऐसी बयानबाजी से इन्हें प्रेरणा जो देता है। यथा…राज्यसभा में रेणुका चौधरी पर ‘रामायण के बाद ऐसी हंसी…’, पूर्व पीएम मनमोहन सिंह पर ‘बाथरूम में रेनकोट पहन कर नहाने…’ जैसे कटाक्ष इन्हें प्रेरित जो करते हैं।सिर्फ सोशल मीडिया नहीं दोषी
सियासत में गिरते भाषा के स्तर के लिए दोष सोशल मीडिया पर थोपा जाता है। यह उचित नहीं, क्योंकि जब चर्चिल ने गांधी जी के लिए ‘अधनंगा फकीर’ और शिशुपाल ने श्रीकृष्ण के लिए सौ अपशब्दों का प्रयोग भरी सभा में किया था…तब और, दुर्योधन को ‘अंधे का बेटा अंधा’ कहकर द्रौपदी ने उपहास उड़ाया…तब और द्रौपदी को दुशासन और दुर्योधन ने भरी कौरव सभा में निम्न स्तरीय अपशब्दों से संबोधित किया था…तब, सोशल मीडिया नहीं था। वर्तमान में देखें तो कुछ वर्ष पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के लिए वाजपेयी सरकार में वरिष्ठ मंत्री रहे नेता द्वारा ‘शिखंडी’ शब्द का जब प्रयोग किया गया, तब भी सोशल मीडिया अपने रंग में नहीं था। जाहिर है, सोशल मीडिया अकेला अपशब्दों के लिए दोषी नहीं है। अलबत्ता, हाल ही के वर्षों में सियासी दलों ने जो आईटी सेल गढ़े हैं और उनमें युवाओं की फौज को रोजगार दिया है, इसी काम के लिए। स्पष्ट है, सोशल मीडिया नहीं सियासत का गिरता स्तर है दोषी। शब्द निकलते तो नेताओं के मुखारविंद से हैं, सोशल मीडिया की शोभा तो बाद में बढ़ाते हैं। और हां, सोशल मीडिया पर अपशब्दों का प्रयोग बिना शह के तो नहीं होता न! चाहे, वह ‘कुतिया की मौत पर पिल्लों के बिलबिलाने’ का ट्वीट हो या फिर कुछ और…। अब तो शहादत को भी ‘श्राप’ का नाम दिया जाने लगा है।
कब-कब…कैसे-कैसे शब्द