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जितेन्द्र सिंह शेखावत
जयपुर। भगवान श्रीकृष्ण के युग में युधिष्ठर के बाद संसार के अंतिम अश्वमेध यज्ञ जयपुर में सवाई जयसिंह की ओर से करवाए गए। यह यज्ञ सवाई जयसिंह का अत्यन्त खर्चीला और दुर्लभ कर्म था। काशी विद्वत सभा के उपाध्याय रामचन्द्र द्रविड़ और जगन्नाथ सम्राट जैसे प्रकाण्ड विद्वानों की देखरेख में एक साल तक हुए यज्ञ में तीन करोड़ ब्राह्मणों को दक्षिणा देने के साथ ही जयसिंह ने अपना खजाना खाली कर दिया था। इस यज्ञ के दौरान जिसने जो मांगा वही उसको मिला। वर्ष 1734 में सावन सुदी नवमी पर रविवार को हुए यज्ञ में जयसिंह चार रानियों के साथ बैठे थे। ग्रंथों में लिखा है कि अश्वमेध यज्ञ करवा कर जय सिंह युधिष्ठिर के अवतार कहलाए थे।
यज्ञ के लिए सावरकरण घोड़ा और युधिष्ठर द्वारा पूजित वरदराज श्री विष्णु एवं माता लक्ष्मी की दुर्लभ मूर्ति को जयपुर का एक सैनिक योद्धा हीदा मीणा कांचीपुरम से लाया था। इस यज्ञ में भारत के कई राजा महाराजाओं को भी आमंत्रित किया गया था। यज्ञ के बाद विद्वानों ने कहा कि कलयुग में भी इस महाराजा ने सतयुग स्थापित कर दिया है। देश के प्रमुख विद्वानों वाली काशी विद्वत सभा ने यज्ञ करने की अनुमति दी थी। यज्ञ के बाद विद्वान सभा ने जयसिंह को सर्वशक्ति संपन्न और शक्तिशाली चक्रवर्ती राजा घोषित किया और कहा कि कलयुग में राजा ने बड़ा धार्मिक कर्म किया है।
संस्कृत विद्वान प्रो. सुभाष शर्मा के अनुसार यज्ञ के पूर्व असंख्य पशु-पक्षियों के साथ ही नदियों-सरोवरों का जल मंगाया गया था । यज्ञ के लिए सैकड़ों मण तिल, मूंग, जौ और घी एकत्र किया गया था। स्वर्ण रजत मुद्राओं की ढ़ेरियां अलग से लगी थीं। इतिहासकार सवाई सिंह धमोरा ने लिखा है कि यज्ञ प्रारंभ होने के साथ ही अश्वमेध के घोड़े की दिग्विजय यात्रा शुरू हुई थी। कुमाणी राजपूत भगत सिंह ने अश्व को पकड़कर युद्ध के लिए ललकारा था और चांदपोल दरवाजे पर लड़ते हुए कुर्बानी भी दी थी।
Updated on:
05 Nov 2024 03:34 pm
Published on:
03 Nov 2024 04:51 pm
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