सैकड़ों साल पहले मरुप्रदेश में प्रवाहित होने वाली काक नदी के किनारे लौद्रवा में मूमल की मेड़ी बनी थी, जिसका बखान लोक गीतों व आख्यानों में किया जाता है। लौद्रवपुर में शिव मंदिर के पास आज भी मूमल की मेड़ी के अवशेष मौजूद है, जो इस प्रेम कहानी के मूक गवाह बने हुए हैं। यहां आने वाले सैलानी भग्नावशेष के रूप में दिखाई देने वाली मेड़ी को देखकर उन दिनों की कल्पना करते हैं, जब रेगिस्तान का सीना चीर कर अमरकोट से महिन्द्रा अपनी प्रियतमा मूमल से मिलने यहां आता था। देशी-विदेशी सैलानी लौद्रवा में मूमल की मेड़ी को देखकर इस प्रेमकथा से प्रभावित हुए बिना नहीं रहते।
इतिहास और साहित्य में मूमल-महिन्द्रा की प्रेम कथा का प्रस्तुतिकरण अलग-अलग रूप में हुआ है। राजस्थानी के अलावा सिंधी और गुजराती भाषाओं में भी अलग-अलग नामों से यह कथा लिखी गई है। सब कथाओं में इसे यह दुखांत कथा बताया गया है। जिसमें इस प्रेमी युगल का मिलन नहीं हो सका। मरु अंचल में कही जाने वाली कहानी के अनुसार महिन्द्रा प्रतिदिन अमरकोट से ऊंट पर सवार होकर सौ कोस दूर स्थित लौद्रवा में मूमल से मिलने उसके महल आता तथा भोर होने से पहले ही लौट जाता। एक दिन महिन्द्रा ने मूमल को पुरुष वेश में उसकी ***** सूमल के साथ देखा, जिससे उसके मन में दुर्भावनाओं ने घर कर लिया। उसके बाद वह मूमल से मिले बिना ही वहां से लौट गया तथा फिर लौटकर उसके पास कभी नहीं आया। महिन्द्रा के कई दिनों तक लौद्रवा न आने से मूमल भी विरह वेदना में जलती रही। भ्रम दूर होने पर महिन्द्रा भी विक्षिप्त-सा हो गया। कथाओं में मूमल को अनिंद्य सुंदर और महिन्द्रा को आकर्षक और बांके जवान के रूप में चित्रित किया गया है। इन दोनों की जोड़ी पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध मरु महोत्सव में प्रतियोगिता भी आयोजित करवाई जाती है।