जहां हवाओं में रेत उड़ती है और सूरज का ताप जीवन की कसौटी बनता है, वहां एक रिश्ता हर मुश्किल से बड़ा है — ऊंट और इंसान का।
जहां हवाओं में रेत उड़ती है और सूरज का ताप जीवन की कसौटी बनता है, वहां एक रिश्ता हर मुश्किल से बड़ा है — ऊंट और इंसान का। यह साथ न वाणी मांगता है, न भाषा। यह वह रिश्ता है, जो सदियों से जैसलमेर की रगों में बहता है — जीवन की ज़रूरत से आगे बढक़र आत्मीयता का प्रतीक बन चुका है।
बुजुर्ग हाजी गफ्फार खान के पास चार ऊंट हैं। सुबह सूरज उगने से पहले वह उन्हें नहलाते हैं, दुलारते हैं और हाथों से चारा खिलाते हैं। वे कहते हैं-बच्चे तो शहर चले गए, पर मेरे असली सहारे यही हैं। जब मन उदास होता है, तो ये चुपचाप पास बैठते हैं… जैसे सब समझते हों।
ऊंटों ने जैसलमेर के जीवन को ढोया है — पानी की तलाश में मीलों के सफर से लेकर बारातों, मेलों, और आज की टूरिस्ट ऊंट सफारी तक।
वे केवल सफर नहीं कराते — वे मरुभूमि का मान बढ़ाते हैं।.रेत की पगडंडियों पर जब ऊंट की टापें पड़ती हैं, तो लगता है जैसलमेर की आत्मा चल रही हो।
पर्यटन में बदलती भूमिका, पर अपनापन बरकरार
आज सम, खुहड़ी, लाठी और मोहनगढ़ के ऊंटपालक युवाओं ने पारंपरिक ऊंट सफारी को पेशे में बदला है। विदेशी पर्यटक जब ऊंट पर बैठकर सूर्यास्त की रेत में डूबते हैं, तो कहते हैं - इट्स नॉट जस्ट ए राइड, इट्स ए फीलिंग…। इंसान और ऊंट की यह साझेदारी, केवल रोजग़ार नहीं, जैसलमेर की पहचान बन गई है।
बदले दौर में मशीनों ने ऊंट की उपयोगिता को कम किया है। नई पीढ़ी इस परंपरा से दूर जा रही है। कई बार पर्यटन में इनसे बोझ की तरह व्यवहार किया जाता है, पर जैसलमेर के कई ग्रामीण आज भी ऊंट को परिवार का बुजुर्ग मानते हैं — जिसकी सेवा करना गर्व की बात है।
जैसलमेर की यह साझेदारी केवल एक ऐतिहासिक झलक नहीं, बल्कि आज भी सांस्कृतिक चेतना की सजीव तस्वीर है।
ऊंट और इंसान का यह संबंध संघर्ष व सेवा की भी सीख देता है।
-धीरज पुरोहित, मिस्टर डेजर्ट- 2025