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‘इक बागबान झांसी में’ थाने की चौखट पर पहुंची 90 साल की बुजुर्ग, बोली- मेरे पति से …

इक बागवान झांसी में भी... बुंदेलखंड के बीहड़ों से बागवान जैसी कहानी निकलकर सामने आई है। यहां एक 90 साल की बुजुर्ग महिला डबडबाती आंखों में आंसू लिए थाने पहुंचती हैं और कहती हैं कि मुझे मेरे पति से मिलवा दो…

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AI जेनरेटेड इमेज।

झांसी : सन् 2003 में बागबान एक फिल्म आई थी। इसे देखकर बहुत से लोगों की आंखों से आंसू निकल गए। लेकिन, यह तो महज एक फिल्म थी…आंसू निकलने जैसी क्या बात। दरअसल, यह फिल्म हमारे समाज में हो रहे कृत्यों का एक सजीव उदाहरण थी। आज 22 साल बाद भी हमारे समाज में बागबान जैसे मामले सामने आ रहे हैं, जिन मां-बांप के छांव में हम पले-बढ़े उन्हीं के बुजुर्ग होने पर वह आंख को खटक कैसे सकते हैं। दौलत और धन के लालच में बेटे मां बांप को अलग-अलग कर देते हैं।

ऐसे ही एक कहानी बुंदेलखंड के बीहड़ों से निकलकर आई है। जो ह्रदय को झकझोरने वाली है। यहां एक 90 साल की बुजुर्ग महिला डबडबाती आंखों में आंसू लिए थाने पहुंचती हैं और कहती हैं कि मुझे मेरे पति से मिलवा दो… हम उन्हें देखना चाहते हैं। हमारे बेटों ने हमको अलग कर दिया है!

2.85 करोड़ की कीमत पर टूटा घर

इमलिया गांव के एक बुजुर्ग दंपती की 24 एकड़ जमीन बीड़ा प्राधिकरण ने अधिग्रहित की। इसके बदले उन्हें कुल 2.85 करोड़ रुपये का मुआवज़ा मिलना था। पहली किस्त के रूप में 85 लाख रुपये आ चुके थे, और बाकी 2 करोड़ की रकम आने वाली थी। लेकिन जैसे ही रकम आई, बेटों की आंखों में लालच उतर आया।

चार बेटों ने अपने उन्हीं मां-बाप को 'बांट' लिया, जिनके आंचल और कंधों ने उन्हें बचपन से जवानी तक संभाला था। पिता को तीन बड़े बेटों ने अपने पास रख लिया। क्योंकि जमीन उनके नाम से थी। और मां? उन्हें छोटे बेटे के हवाले कर दिया गया। जैसे कोई ज़िम्मेदारी जिसे निभा लेने भर से फर्ज़ पूरा हो जाए।

'मैं बस अपने पति को देखना चाहती हूं…'

17 मई को मंझले बेटे ने पिता को अपने साथ ले जाकर मां से अलग कर दिया। कई दिन बीते, लेकिन बूढ़ी मां अपने जीवनसाथी से मिल नहीं पाईं। आखिर थक-हार कर कांपते कदमों से रक्सा थाने पहुंचीं। आंखों में आंसू और हाथों में सिर्फ एक छोटी सी उम्मीद- 'मुझे मेरे पति से मिला दो…'

थाना प्रभारी परमेंद्र सिंह के मुताबिक मामले की गंभीरता को समझते हुए पारिवारिक काउंसलिंग की बात कही है। लेकिन सवाल अब पुलिसिया कार्रवाई से कहीं बड़ा हो गया है।

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सवाल पैसों का नहीं, सोच का है

इमलिया की यह घटना किसी एक परिवार की टूटती कहानी नहीं है। यह हमारे समाज की उस गिरावट का संकेत है, जहां पैसे के आगे रिश्ते झुक जाते हैं। बेटों की आंखों में मुआवज़े की चमक इतनी तेज़ थी कि उन्हें मां-बाप की कांपती उंगलियां और झुर्रियों से भरा चेहरा भी धुंधला लगने लगा।


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