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एक दल का बंधुआ नहीं रहा कानपुर, जांच-परख कर चुनता जनप्रतिनिधि

अधिकतर राजनीतिक दलों ने मैनचेस्टर से रखी बुनियाद, इंदिरा से लेकर अटल बिहार तक सबने भरीं हुकार

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Kanpur Political special story before 2019 Lok Sabha Election

एक दल का बंधुआ नहीं रहा कानपुर, जांच-परख कर चुनता है जनप्रतिनिधि

कानपुर। अंग्रेज जाने से पहले कानपुर में मिलों की बुनियाद रख गए और इसी के कारण शहर का नाम पूरब के मैनचेस्टर पड़ा। तो वहीं राजनीतिक दृष्टि से भी एक महत्वपूर्ण शहर कानपुर है। जब भी कोई राजनीतिक पार्टी अस्तित्व में आई तो सबसे पहले उसने अपनी ताल यहीं से ठोंकी। 1977 में जब इंदिरा गांधी ने कांग्रेस (आई) बनाई थी तो पार्टी का पहला अधिवेशन कानपुर में ही किया। 1980 में जब भारतीय जनता पार्टी बनी तो उसका पहला अधिवेशन भी कानपुर में ही हुआ था। इतना ही नहीं वामपंथी पार्टी की बुनियाद भी मजदूरों के शहर में रखी गई। पर कनपुरिए कभी एक दल के बंधुआ नहीं रहे। उन्होंने अपने जनप्रतिनिधि का चुनाव काम और कुशलता परख कर ही किया है। 2019 का शंखदान हो चुका है और राजनीतिक दल शहर की थाह ले रहे हैं, पर मजदूर खामोस हैं। अखिलेश और मयावती खोता खोलने के साथ ही दिल्ली में सरकार बनाने के लिए जमीन में अपने कार्यकर्ताओं को लगा रहे हैं तो वहीं कांग्रेस अपने गढ़ को फिर से भाजपा के चंगुल से छुड़ाने के लिए एड़ी चोठी का जोर लगाए हुए है।

पर वोट सोंच समझ कर दिया
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद की पटल से लोकसभा चुनाव 2019 का शंखदान कर दिया तो वहीं विरोधी दल भी भाजपा के विजयी रथ को रोकने के लिए जुट गए हैं। इन सबके बीच मजदूरों का शहर खामोस है और दिल्ली से लेकर लखनऊ में बड़ी सियासत को बड़े गौर से देख रहा है। कानपुर ने सभी दलों को दिल से लगाया, पर किसी एक को अपना नहीं बनाया। आज़ादी के बाद के दो-तीन दशकों तक कांग्रेस की ताकत चरम पर थी, लेकिन 1957 से 1977 कांग्रेस का कोई नेता कानपुर से जीत नहीं सका। पार्टी ने हर संभव प्रयास किया कि कोई कांग्रेस का नेता कानपुर से जीते। उन्ही दशकों में एक औद्योगिक नगरी के तौर पर कानपुर का पूरे भारत में वर्चस्व था और एकजुट मज़दूरों के आगे कांग्रेस की एक न चली. कांग्रेस को मुंह की खानी पड़ी।

मजदूरों से दूरी बनाई
1951-52 से हुए हर चुनाव का विश्लेषण कर चुके कानपुर के इतिहासकार मनोज कपूर कहतें है, “आज़ादी के बाद कानपुर संसदीय सीट का चरित्र मज़दूरों के शहर के रूप में उभर कर आया। यहां कपड़े की मिलों के साथ ही अंग्रेज़ों द्वारा स्थापित की गई चार बड़ी ऑर्डिनेंस फैक्ट्रियां भी थीं, जिन पर लाखों मज़दूर काम किया करते थे। कपूर ने बताया कि देश के पहले चुनाव में कांग्रेस ने हरिहर नाथ शास्त्री को उतारा। वे एक मज़दूर नेता थे और कानपुर से जीत गए। इस दौरान कानपुर का उन्होंने विकास कराया। मिलों की रफ्तार बढ़ाई पर मजदूरों के लिए उनके पिटारे से कुछ नहीं निकला। जिसके चलते मजदूरों की लॉबी हरिहर नाथ शास्त्री के खिलाफ हो गई और कई मजदूर युनियन चुनाव से पहले शास्त्री को चुनाव में हरादिया।

भगत सिंह के मित्र को उठानी पड़ी हार
म्नोज कपूर बताते हैं कि 1957 के चुनाव में एक ट्रेड यूनियन नेता सत्येन्द्र मोहन बनर्जी चुनावी मैदान में बाघ चुनाव निशान के साथ उतरे और अपनी पहली जीत दर्ज कर कानपुर का रंग लाल कर दिया। 1962 के चुनाव में कांग्रेस ने एक महान क्रांतिकारी विजय कुमार सिन्हा जो आज़ादी की लड़ाई में भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद के साथी थे, को बनर्जी के खि़लाफ़ मैदान में उतारा। लेकिन एकजुट मज़दूरों के चलते क्रांतिकारी को हार और बनर्जी को जीत मिली। 1967 में कांग्रेस ने अपना पैंतरा बदला. बनर्जी के खि़लाफ़ कांग्रेस के अपने एक बड़े ट्रेड यूनियन नेता गणेश दत्त बाजपाई को खड़ा किया। पर कांग्रेस का यह दांव भी बेकार गया और बनर्जी फिर सांसद चुन लिए गए। इसी के बसद कांग्रेस ने अपनी हार मान ली. 1971 के चुनाव में पार्टी ने बनर्जी के खिलाफ कोई उम्मीदवार नहीं खड़ा किया।

इमरजेंसी के बाद लाल झंडा गायब
मनोज कपूर बताते हैं कि जयप्रकाश नारायण राममनोहर लोहिया के साथ सैकड़ों लोग इदिरा सरकार के खिलाफ। हल्ला बोल दिया। मजूदर भी कांग्रेस की नीतियों के खिलाफ हो गए और जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में कूद पड़े। इसी दौरान अधिकतर मिलों में ताले पड़ गए पर मजदूर पंजे के बजाए जनता पार्टी के साथ खड़े हो गए। इमरजेंसी के बाद जनता पार्टी की जो लहर चली उसके आगे बनर्जी टिक न सके। जनता पार्टी के मनमोहन लाल जीते। जीत का मार्जिन था, पौने दो लाख वोट था जबकि बनर्जी तीसरे नंबर पर रहे। दूसरे नंबर पर रहे कांग्रेस के नरेश चन्द्र चतुर्वेदी। 1977 के बाद 1980 से पहले कानपुर में फिर से परिवर्तन की बयार बहने लगी और कनपुरिए अपने नए जनप्रतिनिधि को चुनने के लिए चौपाल और टोलियां लगा गली-मोहल्लों की खाक छानने लगे।

कांग्रेस की हुई वापसी
1980 में कांग्रेस के आरिफ मोहम्मद खान ने कानपुर से जीत दर्ज की। मनोज कपूर कहते हैं, अस्सी के दशक में कानपुर का जो लेबर मूवमेंट था वह छिन्न-भिन्न होने लगा था और सिर्फ कानपुर ही क्यों पूरे देश में लेबर मूवमेंट ख़त्म हो रहा था। एक समय था जब दत्ता सामंत जैसे लोग मुम्बई को हिला देते थे। वह पीढ़ी ख़त्म हो रही थी या ख़त्म हो चुकी थी। 1984 का चुनाव इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुआ। कांग्रेस के प्रति सहानुभूति की लहर थी। 1977 में एक बार हार का मुंह देख चुके नरेश चंद्र चतुर्वेदी भारी मतों से जीते। अगला चुनाव 1989 में हुआ और इस मिलों की नगरी में पहली बार एक वामपंथी पार्टी- सीपीआई (एम) की उम्मीदवार सुभाषिनी अली ने जीत दर्ज की।

अब आई भाजपा की बारी
1991 के लोक सभा चुनाव से पहले हिंदुत्व की लहर उफान पर थी. 1989 में बीजेपी के जगत वीर सिंह द्रोण सुभाषिनी अली से हार गए थे, पर 1991 में द्रोण ने सुभाषिनी अली को हरा दिया। कानपुर में अब लाल की जगह केसरिया झंडे लहरा रहे थे। द्रोण 1996 और 1998 में भी जीते पर 1999 में कांग्रेस के श्रीप्रकाश जायसवाल से हार गए। पर अगले तीन चुनाव लगातार जीत कर श्रीप्रकाश ने हैट्रिक बनाई, जिस पर रोक डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी ने 2014 के लोकसभा चुनाव में लगाई। 2019 के लिए अभी किसी राजनीतिक दल ने उम्मीदवारों का चयन नहीं किया। राजनीति दल जानते हैं कि अगर कानपुर जीता तो दिल्ली मिलनी तय हैं। इसी के चलते 2019 को फतह करने के लिए अंदरखाने बैठकों का दौर चल रहा है।