कोरबा- दीवाली करीब है, बाजार में रौनक है। सभी शॉपिंग की तैयारी कर रहे हैं। तो कुछ की बाकी है। इन सबके बीच कुम्हार सुखीराम प्रजापति का काम दोगुना हो गया है। लेकिन इससे वह इससे खुश है। क्योंकि यही वो मौका है जिसका उसे साल भर इंतजार रहता है। कुम्हार की मेहनत देख ये लाईन उसपर बिल्कुल फिट बैठती है- बनाकर “दीये” “मिट्टी” के,”जऱा” सी “आस” “पाली” है, “मेरी मेहनत” “खऱीदो” लोगों, “मेरे घर” भी “दीवाली” है..!!
दीवाली के त्यौहार में ज्यादा से ज्यादा व्यापार हो सके इसके लिए वार्ड ४२ के बेलगरी बस्ती के कुम्हार सुखीराम पूरे उत्साह से दीये बनाने में लगा हुआ है। सुखीराम कहता है कि काश वो दिन लौट आएं जब मिट्टी के दिये से उन्हें अच्छा मुनाफा होता था। कारण यह है कि विगत कुछ सालों के दौरान दीवाली के दिन मिट्टी के दियों की जगह सस्ते इलेक्ट्रानिक सामान लेने लगे हैं। सुखीराम बताते हैं कि पहले हामरे समाज के सारे लोग यही काम करते थे। लेकिन बढ़ती महंगाई और दीयों के घटते चलन से बहुत से कुम्हारों ने दीये बनाने का काम छोड़ दिया है। सभी कुछ न कुछ रोजी मजदूरी कर पेट पालते हैं। बीते ५ से १० वर्षों के दौरान स्थिति ज्यादा खराब हुई है। घाटे के कारण कई परिवारों ने अब अपने इस पारंपरिक व्यवसाय से तौबा कर ली है। सुखीराम कहते हैं कि पहले कम दाम पर दीये बेचकर भी मुनाफा अधिक होता था। अब तो कारोबार काफी कम हो गया है। हर साल लगभग २५ हजार दीये बनाता हूं। जिससे सात से आठ हजार रूपयों का मुनाफा हो जाता है। थोक व्यापारी मे दीयों को ८० से १०० सैंकड़ा के भाव से दीये खरीदते हैं। लेकिन बाजार भाव इससे कहीं ज्यादा का होता है।
