
Shardiya Navratri: आशापूरा मां के इस मंदिर में बनी थी रावण से युद्ध करने की रणनीति
कोटा का आशापूरा मंदिर। कहने के लिए तो यह सिर्फ चौहानों की खाप हाड़ाओं की कुलदेवी का मंदिर है, लेकिन दशहरा नजदीक आते ही इस मंदिर की महत्ता और बढ़ जाती है। क्योंकि सदियों से इसी मंदिर में रावण के वध को लेकर रणनीति तैयार होती आई है। भगवान राम की सेना के प्रतीक माने जाने वाले कोटा के हाड़ा राजाओं के पंच इसी मंदिर में रावण की सेना से मुकाबले की रणनीति तय करते हैं। और जब रावण का वध करना तय हो जाता था तो मंदिर में मशाल जलाकर उसका संकेत दिया जाता है। गढ़ की प्राचीर पर बैठा तोपची इस मशाल को देखकर रावण की सेनाओं पर तोप दागने लगता है। तोप चलते ही कोटा और आसपास के इलाके के शहरों को पता चल जाता है कि रावण से युद्ध पक्का हो गया है। समय के परिवर्तन के साथ इस परंपरा में कुछ बदलाव हुए है, लेकिन आज भी इसका निर्वहन जारी है।
753 साल पहले हुई थी स्थापना
कोटा के दशहरा मैदान में स्थापित आशापूरा माता मंदिर की स्थापना 753 साल पहले हुई थी। मंदिर में 50 वर्षों से सेवा-पूजा करने वाले रामचन्द्रनाथ योगी के अनुसार बूंदी के राजकुमार जेतसिंह ने इस मंदिर का निर्माण सन 1264 में करवाया था। बताते हैं कि मंदिर पहले एक चबूतरे पर था, लेकिन एक बार एक आयोजन के दौरान शामियाना गिरने से कुन्हाड़ी के तत्कालीन जागीरदार राज विजय सिंह के सिर में चोट लग गई तो महाराव उम्मेद सिंह द्वितीय ने 1911 में मंदिर का निर्माण करवाया। मंदिर 20 वीं शताब्दी की भवन निर्माण शैली में बना हुआ है। शुरुआती मंदिर में देवी के चित्रपट्ट का पूजन होता था, लेकिन कुछ वर्षों पहले पूर्व राजपरिवार के सदस्य बृजराज सिंह ने यहां मां आशापूरा की भव्य प्रतिमा स्थापित करवाई।
आशाएं पूरी करने वाली आशापूरा मां
आशापूरा मां को नौ देवियों का शाकम्भरी रूप माना जाता है। कहा जाता है देवी अशोक वृक्ष के तने से प्रकट हुई थी। इस कारण कई लोग मंदिर को आशापाला मंदिर के नाम से भी जानते हैं। आशापूरा माता चौहान हाड़ा शासकों की कुल देवी हैं। लोगों में मान्यता है कि वह श्रद्धालुओं की हर आशा को पूरी करती हैं इसलिए उनका नाम आशापूरा मां हो गया। कोटा के लोगों में मंदिर को लेकर विशेष आस्था है। मंदिर में नवरात्र महोत्सव धूमधाम से मनाते हैं। अष्टमी पर हवन किया जाता है। दूर दराज से श्रद्धालु देवी के दर्शन करने के लिए आते हैं।
यहीं तय होती है रावण के वध की रणनीति
इतिहासकार फिरोज अहमद के अनुसार नवमी पर यहां गढ़ से खांडे की सवारी आती थी। औपचारिक रूप से रावण के वध को लेकर सदियों से रणनीति भी यहीं तैयार होती रही है। पंच मिलकर रणनीति तय करते थे। जब रावण का वध करना तय हो जाता था तो यहां मशाल जलाई जाती थी। गढ़ की प्राचीर से तोपची इस मशाल को देखकर तोप चलाते थे। इससे शहर को पता चल जाता था कि रावण से युद्ध पक्का हो गया है।
Updated on:
23 Sept 2017 10:18 am
Published on:
23 Sept 2017 10:15 am
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