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मरे हुए बछड़े का मांस सुंघाकर भेंसों को गुस्सा दिला किया जाता है ये दिल दहला देने वाला काम

गोवर्धन पूजा पर देश में जहां पशुओं की पूजा की जाती है। जबकि यहां पर मरे हुए बछड़े का मांस सुंघाकर भेंसों को गुस्सा दिलाया जाता है।

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Folk traditions of Diwali in Rajasthan

भारतीय समाज में लोक परंपराएं भी बड़ी अजीबो-गरीब हैं। कहीं बैलों की दौड़ होती है तो कहीं बैलगाड़ी दौड़ाकर त्यौहार मनाया जाता है, लेकिन राजस्थान जैसी परंपरा देश में कहीं दूसरी जगह नहीं होती। यहां गुर्जर समाज के लोग अपनी भेंसों को मरे हुए बछड़े का मांस सुंघाकर गुस्सा दिलाकर अक्रामक बनाते हैं, ताकि किसी खूंखार जंगली जानवर के हमला करने पर उससे मुकाबला कर सकें।

कोटा में दीपावली के दूसरे दिन गुर्जर समाज के लोग अनूठी परंपरा निभाते है। ये लोग एक जगह इकठ्ठा होकर अपनी भेंसों को एक बड़े बाड़े ( भैंस बांधने का मैदान) में छोड़ देते है । उसके बाद एक बड़े डंडे पर मरे हुए पाड़े (बछड़े) का मांस बांधकर भेंसों के सामने लाया जाता है। भैंसें उस मांस को देखकर व उसकी बदबू सूंघकर आक्रोशित हो जाती है और उस डंडे की तरफ दौड़ती है। सदियों से चली आ रही यह परंपरा राजस्थान के हर गुर्जर बाहुल्य गांव में देखने को मिल जाती है।

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ये होता है फायदा

मरे हुए बछड़े का मांस सुंघाकर भेंसों को गुस्सा दिलाने के काम के पीछे गुर्जर समाज का एक बड़ा लॉजिक काम करता है। समाज के लोगों का यह मानना है कि इससे यह पता किया जाता है कि भेंस जंगली जानवर से अपने बछड़े की रक्षा कर सकती है या नही। समाज की इस परंपरा को इनकी भाषा मे भैसो को खिलाना बोला जाता है।

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गोवर्धन के साथ पूजे जाते हैं बैल

भेंसों को खिलाने के साथ ही हाड़ौती में एक और परंपरा का निर्वहन आज भी होता है। गोवर्धन के साथ-साथ यहां बैलों की पूजा भी की जाती है। हालांकि खेती-बाड़ी में बढ़ते अत्याधुनिक संसाधनों के कारण अब बैल मिलना मुश्किल हो जाता है, लेकिन यहां आज भी निर्वाध रूप से इस परंपरा का निर्वहन किया जाता है। दीपोत्सव के चौथे दिन गोवर्धन पूजा के बाद किसान बेलो की पूजा करने के लिए 25 हजार से अधिक की आबादी वाले सुल्तानपुर कस्बे में मात्र 2 किसानों के पास बेलो की जोड़ी थी जिनकी पूजा करने के लिए कस्बे के सभी किसान परिवार उमड़ पड़े। कस्बे के बुजुर्गों के अनुसार पहले किसान बेलो से खेती करते थे तो उनकी पहचान भी बेलो से और बैलगाड़ी से होती थी लेकिन समय के साथ अब बेल को छोड़ किसान ट्रैक्टरों से खेती करने लगे है । आज से 4 वर्ष पूर्व कस्बे में एक दर्जन किसानो के पास बेल थे जिनकी धूमधाम से पूजा अर्चना की जाती थी।