
Satire on demonetisation by aditya jain
'भाइयों और बहनों' ये दो खतरनाक शब्द टीवी पर जब-जब भी सुनाई देते हैं...आम आदमी तुरंत जेब में हाथ डाल लेता है... और अपने पैसों को कस के पकड़ लेता है। करे भी क्या बेचारा! 'डिजिटल इंडिया' के तहत होने वाली 'ई-चोरी' से घबरा रहा है। अपने नोटों की आधी गर्दन नोटबंदी में और आधी जीएसटी में कटा कर करहा रहा है।
अचानक... उसे याद आ जाती है... वो भयानक काली रात... कहर ढाने वाली 'मन की बात'। वह 'नोटबंदी का हथौड़ा' जो सचमुच... बहुत बड़ा था। आम आदमी के सिर पर तो सीधा पड़ा था। रातभर घरों से बर्तनों के बजने की आवाज आ रही थी। 'घर में जहर खाने के भी पैसे नहीं हैं'... यह कहने वाली महिलाएं आटे के डब्बे में से एक-एक लाख निकाल कर ला रही थीं। भाषण का हर शब्द जनता के लिए शूल हो गया था, पेट काट-काट कर जमा किया गया पैसा एक क्षण में धूल हो गया था। ऊपर से देशभर में 'राष्ट्रहित का फैसला' जैसे मंत्र उचारे गये। मगर दुख इस बात का है कि 'गिद्ध' सारे बच गए और बेचारे 'कबूतर' मारे गए। सदमे भरी रात का समय सचमुच बड़ा था। अगली सुबह 'साहब' तो जापान की फ्लाइट में बैठे थे... और पूरा देश लाइन में खड़ा था। हर एक दिल से हूक उठ रही थी... 'चिट्ठी ना कोई संदेश... लाइन में लगा कर देश...विदेश तुम चले गए'।
आज देश मंदी के दौर में खड़ा है... बाजार ठप्प है... धंधा चौपट पड़ा है। नंगे तन पर चीर नहीं है... बिन रोटी के थाली है। झोपडिय़ों में अंधियारा है... और राजमहलों में दिवाली है। 'अच्छे दिन' का 'सच' भी इतनी सफाई से बोला गया कि हमने तो सच मान लिया था...। मगर उस दिन 'सच्चाई' को भी जान लिया था। जब 'बत्ती वालों' के घर तो करोड़ों का 'नया पैसा' जा रहा था और बेचारा आम आदमी... 4000 के लिए लाइनों में खड़ा होकर तन से 'पसीना' और आंखों से 'आंसू' बहा रहा था।
ऐसे में चैनल वाले निहायत संवेदनशीलता का परिचय देने के लिए लोगों के पीछे-पीछे भाग रहे थे। हर किसी के मुंह में माइक ठूंसकर 'आपको कैसा लग रहा है ?' जैसे प्रश्न दाग रहे थे। आधी-अधूरी तैयारी के फैसले अधर में झूल गए थे। 'चायवाले' और 'केटली वाले' ने चाय तो अच्छी बनाई... मगर दूध डालना भूल गए थे। ऐसे में विपक्ष के 'शहजादे' भी जिद पर अड़े थे। 40 कारों के काफिले में, लाखों का पेट्रोल फूंककर... चार हजार लेने के लिए लाइन में खड़े थे। 'छोटे वाले' चैनल पर खेद कर रहे थे। 'बड़ेवाले' 'काले' को 'सफेद' कर रहे थे।
कुल मिलाकर 'सेटिंग' का खेल हो रहा था। 'तंत्र' हंस रहा था, मगर 'लोक' रो रहा था। राष्ट्रहित के सारे मामले भी रफा-दफा निकले। 'साहब' तो सोनम गुप्ता से भी बड़े बेवफा निकले। 'भाइयों और बहनों' की आवाज ने सचमुच डरा दिया। अच्छे दिन आएंगे... लगता तो था... मगर ऐसे आएंगे... पता न था...।
Published on:
08 Nov 2017 10:58 am
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