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…जब सत्ता की साझेदारी को लेकर टूट गया सपा-बसपा का गठबंधन

सियासी समीकरणों में दोनों पार्टियों के बीच गठबंधन हुआ है तो सवाल उठ रहे हैं कि क्या यह गठबंधन अपना इतिहास दोहरा पाने में सफल होगा।

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mayawati

लखनऊ. राम मंदिर आंदोलन की लहर के दौर में उत्तर प्रदेश में यह अंदाजा लगा पाना भी मुश्किल था कि भारतीय जनता पार्टी का कोई राजनीतिक विकल्प प्रदेश में खड़ा हो सकता है। साल 1993 में बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी के बीच हुए गठबंधन ने भारतीय जनता पार्टी को हासिये पर धकेल दिया था। तब इस गठबंधन में बसपा की ओर से कांशीराम और सपा की ओर से मुलायम सिंह यादव अगुआ थे। गठबंधन ने सरकार बनाई और केवल दो साल में ही सत्ता की साझेदारी में बंटवारे के विवाद में सरकार गिर गई। सपा सरकार से बसपा ने 1995 में समर्थन वापस लिया और मायावती के साथ गेस्ट हाउस में हुई अभद्रता ने एक ऐसी लकीर खींच दी जो 23 सालों तक बरक़रार रही। अब बदले सियासी समीकरणों में दोनों पार्टियों के बीच गठबंधन हुआ है तो सवाल उठ रहे हैं कि क्या यह गठबंधन अपना इतिहास दोहरा पाने में सफल होगा।

बुआ और भतीजे के बीच गठबंधन

दरअसल लोकसभा के 2014 और विधान सभा के 2017 के चुनाव में सबसे अधिक नुकसान बहुजन समाज पार्टी को उठाना पड़ा था। विधान सभा चुनाव के बाद नतीजे घोषित होने से पहले अखिलेश यादव ने बसपा से गठबंधन के संकेत भी दिए थे। सियासी रूप से अखिलेश यादव हमेशा मायावती को बुआ कहकर रिझाने की कोशिश करते दिखे लेकिन मायावती ने अखिलेश यादव को सियासी तौर पर भतीजा कभी स्वीकार नहीं किया। अब यह पहला मौक़ा है जब मायावती ने उत्तर प्रदेश की दो लोकसभा सीटों पर होने जा रहे उपचुनाव के लिए समाजवादी पार्टी के समर्थन का ऐलान किया है। हालाँकि मायावती इससे पहले भी विधान सभा चुनाव के बाद भाजपा के खिलाफ सेक्युलर पार्टियों से समझौते का संकेत देती रही हैं लेकिन जानकार मायावती के किसी भी संकेत को उस समय तक स्वीकारने के मूड में नहीं थे, जब तक उनकी ओर से कोई औपचारिक घोषणा न हो जाये। यह संयोग है कि इस बार यह समझौता ऐसे माहौल में हो रहा है जब कांशीराम दिवंगत हो चुके हैं और बसपा की बागडोर पूरी तरह मायावती के हाथ में है जबकि मुलायम सिंह यादव समाजवादी पार्टी के संरक्षक होते हुए भी पार्टी में कुछ नहीं है और पार्टी के सर्वेसर्वा उनके बेटे अखिलेश यादव हैं। अखिलेश यादव और मायावती के बीच बुआ-भतीजे का यह सियासी गठजोड़ फिलहाल भारतीय जनता पार्टी की नींद उड़ा सकता है।

इसलिए हो सकता है भाजपा को ख़तरा

गोरखपुर सीट योगी आदित्यनाथ के कारण भले ही मजबूत मानी जाती हो लेकिन बदले समीकरण में कुछ भी दावे के साथ कह पाना मुश्किल है। बसपा और सपा के चुनावी मैदान में आमने-सामने होने से बिखरने वाला मुस्लिम वोटर अब एक जगह होकर वोट करेगा। इसके साथ ही दलित और ओबीसी वर्ग की कई जातियां इन पार्टियों के आमने सामने होने के कारण बिखर जाया करती थीं लेकिन अब माना जा रहा हैं कि दोनों पार्टियां उन्हें साधने और एक साथ वोट करवाने की कोशिश करेंगी। मायावती और अखिलेश यादव दोनों के लिए ही यह गठबंधन एक तरह से ट्रायल मैच साबित होने वाला है। भाजपा निश्चित तौर पर इन दोनों सीटों पर एड़ी-चोटी का जोर लगाएगी क्योंकि अब इन दोनों सीटों पर गठबंधन की जीत जहाँ सपा-बसपा गठबंधन की लम्बी उम्र तय करेगी वहीं यदि भाजपा को जीत मिलती है तो प्रदेश में विपक्षी दल एक बार फिर डूबते नाव की तरह 2019 की तैयारियों में जुट जायेंगे।