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बहनजी से छिटके भाई

बसपा से नेताओं के टूटने की तेज रफ्तार के कारण इस रक्षाबंधन लगभग अकेली पड़ गयी हैं मायावती.

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sanjiv mishra

Aug 07, 2017

Mayawati

Mayawati

डॉ.संजीव


लखनऊ. वह 22 अगस्त 2002 की तारीख थी। उत्तर प्रदेश भाजपा के वरिष्ठ नेता लालजी टंडन के घर पर गाड़ियों का काफिला रुका। उस समय प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती स्वयं उनके घर आयी थीं। उन्होंने लालजी टंडन के हाथ में चांदी की राखी बांधी थी। तब यह राखी खूब चर्चा में आई थी। इस बार भी रक्षाबंधन पास आते-आते मायावती व उनकी राखी फिर चर्चा में है। दरअसल न सिर्फ लालजी टंडन जैसे धर्म भाई, बल्कि पार्टी में उन्हें बहनजी कह कर उनके नाम पर सर्वस्व न्यौछावर करने का दावा करने वाले उनके अधिकांश भाई एक-एक कर मायावती से छिटकते जा रहे हैं। उनमें से तमाम को शरण भी मिल रही है उनके धर्म भाई यानी लालजी टंडन की ही पार्टी भाजपा में। अब वो अकेली सी पड़ती जा रही हैं और उनकी पार्टी के नेता-कार्यकर्ता भी खासे हताश से हैं।

14 अप्रैल 1984 में बहुजन समाज पार्टी की स्थापना के बाद से यह पहला मौका नहीं है, जब पार्टी से नेता पलायन कर रहे हों। हां, इतना जरूर है कि 18 सितंबर 2003 को मायावती द्वारा पार्टी का अध्यक्ष पद संभालने के बाद यह पहला मौका है, जब बसपा नेतृत्व व कार्यकर्ता लगातार नेताओं के पलायन से परेशान दिख रहे हैं। प्रदेश सरकार में कद्दावर मंत्री रहे एक वरिष्ठ बसपा नेता इसके लिए स्वयं मायावती को जिम्मेदार ठहराते हैं। उनका कहना है कि कार्यकर्ता अब निराश नहीं, हताश हैं और दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से बहनजी इसे समझ नहीं पा रही हैं। मायावती आज भी अपने कार्यकर्ताओं व नेताओं के लिए बहनजी ही हैं किन्तु यह बहन इस बार राखी पर काफी अकेली सी है। हाल ही में इंद्रजीत सरोज के रूप में बसपा से एक औ र नेता का पलायन हुआ है किन्तु माना जा रहा है कि अभी कुछ और नेता बसपा छोड़ेंगे। हर नेता उन पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाकर पार्टी छोड़ता है और फिर पार्टी के बचे-खुचे नेता और कई बार तो स्वयं मायावती ही, उस नेता पर बेईमानी का आरोप लगाकर शांत हो जाती हैं। उक्त वरिष्ठ नेता के अनुसार यह सिलसिला नहीं थमा तो बचे नेता भी अपनी राह तलाश लेंगे।

दूर हुए सब बारी-बारी

बहुजन समाज पार्टी के इतिहास को देखें तो पार्टी की स्थापना के समय कांशीराम के साथ कदम से कदम मिलाने वाले नेता एक-एक कर बाहर जाने लगे थे। यह सिलसिला मायावती की बसपा में पैठ बढ़ने के साथ ही शुरू हो गया था। मायावती पहली बार 1989 में बिजनौर से सांसद बनी थीं और पार्टीे में उनका कद बढ़ना शुरू ही हुआ था कि पार्टी के संस्थापकों में शामिल रहे राज बहादुर व जंग बहादुर से बसपा छोड़ दी। 1994 में कांशीराम के करीबी माने जाने वाले डॉ.मसूद ने बसपा छोड़ी तो 1995 में सोनेलाल पटेल ने पार्टी छोड़कर अपना दल का गठन किया। 2001 में आरके चौधरी व 2002 में प्रकाश राज बसपा से अलग हुए। चौधरी 2013 में दोबारा बसपा में आए किन्तु पिछले साल फिर बाहर हो गए। इनके अलावा बाबू सिंह कुशवाहा व दद्दू प्रसाद जैसे नेता भी बसपा के मिशन का साथ छोड़ गए।

प्रभावित हुआ वोट बैंक

बहुजन समाज पार्टी भले ही पहले दलित वोट बैंक पर फोकस कर रही हो, किन्तु सरकार बनाने के लिए पार्टी ने सर्व समाज से जुड़ाव का नारा दिया था। पिछले कुछ वर्षों में पार्टी से सभी समाजों के लोग दूर हुए। राज बहादुर, जंग बहादुर, सोनेलाल पटेल, रामपूजन पटेल जैसे कुर्मी नेताओं ने मायावती से किनारा किया, तो हाल ही में बसपा छोड़ने वाले इंद्रजीत सरोज पासी जाति का प्रतिनिधित्व करते हैं। बाबू सिंह कुशवाहा व स्वामी प्रसाद मौर्य आदि के रूप में पिछड़ों ने बसपा को पछाड़ने की मुहिम शुरू की तो ब्रजेश पाठक ने ब्राह्मण स्वाभिमान का नारा देकर बसपा छोड़ी। हाल ही में बसपा छोड़ने वाले जयवीर सिंह हों या अशोक चंदेल और प्रदीप सिंह, इनके बसपा छोड़ने के बाद पार्टी नेतृत्व में ठाकुरों की हिस्सेदारी गुम हो गयी है। नसीमुद्दीन सिद्दीकी वर्षों बसपा का अल्पसंख्यक चेहरा रहे हैं किन्तु उनके पार्टी छोड़ने के बाद बसपा अब अपना नया अल्पसंख्यक नेतृत्व खड़ा करने के लिए जूझ रही है।

बचे गिने चुने नेता

हालात ये हैं कि बसपा छोड़ने वाले सभी नेताओं ने मायावती पर पैसे मांगने, वसूली कराने व भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने जैसे आरोप लगाए। पार्टी के पास नेतृत्व का संकट उत्पन्न हो गया है। पार्टी की अधिकृत वेबसाइट पर नेतृत्व के नाम पर सिर्फ मायावती व सतीश चंद्र मिश्र का नाम ही दिखाई देता है। इनके अलावा बड़े नेताओं में सिर्फ लालजी वर्मा, राम अचल राजभर व रामवीर उपाध्याय ही बचे हैं। इधर जिस तरह से बसपा से नेताओं का पलायन जारी है, उससे यह चुनौती और बढ़ने की उम्मीद है। उत्तर प्रदेश विधानसभा में 19 सीटों पर सिमटी बसपा अपने बूते तो अपनी मुखिया मायावती को राज्यसभा तक भेजने में सक्षम नहीं दिख रही है। एक वरिष्ठ नेता ने तो यहां तक कहा कि बहनजी राज्यसभा भले ही लालू प्रसाद यादव की मदद से पहुंच जाएं, किन्तु क्या उत्तर प्रदेश की सभाओं में भी वे लालू या उनकी पार्टी की नेताओं को बुलाएंगी।

पहले नहीं था ऐसा

ऐसा नहीं है कि बसपा छोड़ने का यह सिलसिला एकदम नया है। कांशीराम के समय भी लोग बसपा छोड़ते थे किन्तु तब इतना विषवमन नहीं होता था। बसपा के वरिष्ठ नेता ने बताया कि कांशीराम के समय आदिवासी नेता अरविंद नेताम ने पार्टी छोड़ी थी। वे कांग्रेस में शामिल हुए थे। उस समय कांशीराम ने अरविंद पर आरोप लगाने के बजाय कहा था कि वे जहां गए हैं वहां बसपा के मूल्यों का प्रसार करेंगे। अब ऐसा सकारात्मक दृष्टिकोण देखने को नहीं मिलता है।

अभी मचेगी भगदड़
बसपा से बाहर जाने वालों की संख्या तेजी से बढ़ने के बाद अब इसके भगदड़ का रूप ले लेने की उम्मीद भी जताई जा रही है। कभी पार्टी का अल्पसंख्यक चेहरा रहे नसीमुद्दीन सिद्दीकी का दावा है कि अभी तो उत्तर प्रदेश के नेताओं का पार्टी छोड़ना दिख रहा है, जल्द ही पूरे देश में भगदड़ मचेगी। उन्होंने कहा कि कई प्रदेशों के नेता उनके संपर्क में हैं और जल्द ही वे बसपा छोड़ेंगे। कमोवेश इसी तरह का दावा बसपा से भाजपा में गए उत्तर प्रदेश के कानून मंत्री ब्रजेश पाठक भी कर रहे हैं। पाठक का दावा है कि बसपा से तो हर नेता बाहर आने को तैयार बैठा है। 2019 में लोकसभा चुनाव से पहले पार्टी में नेतृत्व तो छोड़िये, कार्यकर्ताओं तक का संकट पैदा हो जाएगा।