
माया की नजर 2019 पर नहीं बल्कि 2022 के चुनाव पर, YM और DM को साधने में लगीं सपा-बसपा
लखनऊ. कांशीराम से राजनीति का ककहरा सीखा तो मुलायम सिंह के जरिए सत्ता की सीढ़ी चढ़ी। इसी वजह से आज भी राजनीति में उनकी गिनती एक तेज और माहिर नेताओं में होती है। मैनपुरी में सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के त्याग रूपी बयान के बाद भी बसपा प्रमुख खामोश हैं, जिसके चलते अभी भी गठबंधन को लेकर उहापोह की स्थित बनी हुई है। बसपा का एक धड़ा कांग्रेस, सपा के साथ ही अन्य दलों के साथ चुनाव में उतरना चाहता है, जबकि दूसरा पंजे से हाथ मिलाने के लिए मायावती को मना रहा है। पर दोनों धड़ों की बातों को सुनने के बाद भी मायावती मौन धारण किए हुए हैं। जानकारी के मुताबिक आने वाले समय में मायावती कोई बड़ा निर्णय लेने वाली हैं। जानकारों की मानें तो मायावती की नजर 2019 के साथ-साथ 2022 विधानसभा चुनाव पर भी है। दोनों चुनाव में फायदा और नुकसान का आकलन करने में बसपा का थिंकटैंक जुटा है।
बबुआ के हर कदम को भांप रही बुआ
मायावती के परिवार का राजनीति से दूर-दूर तक का नाता नहीं था, लेकिन बसपा के संस्थापक कांशीराम से उनकी एक मुलाकात ने यूपी के साथ ही देश की सियासत ही बदल दी। कांशीराम के कहने पर वह राजनीति में आई और उनकी उंगली पकड़ का सियासत की एबीसीडी सीखी। कांशीराम को दलित वोटर्स को बसपा में लाने का ब्रम्हास्त्र मिल गया और उन्होंने इसे जमकर भुनाया। मुलायम और मायावती ने गठबंधन कर सरकार बनाई, लेकिन ऐन वक्त पर मायावती सियासत के सुल्तान को पटखनी देकर उनसे अलग हो गईं और फिर सपाईयों ने गेस्टहाउस कांड को अंजाम दे डाला। इसी के बाद सपा और बसपा की दूरियां बढ़ गईं। लेकिन लोकसभा, विधनसभा और निकाय चुनाव में मिली हार के बाद मायावती के दल के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा, तभी उन्होंने गोरखपुर और फूलपुर में सपा का समर्थन कर दिया। जिसके बाद अखिलेश यादव ने मायावती की तरफ 2019 के लिए दोस्ती का हाथ बढ़ा दिया। बुआ ने भी बबुआ को गले लगाकर गठबंधन की घोषणा कर दी। लेकिन सीटों को लेकर दोनों दलों के बीच मतभेद बना हुआ है। हालांकि अखिलेश यादव ने जरूर त्यागी पुरूष की तरह मायावती के आगे सरेंडर कर दिया है।
डीएम-वाईएम को लेकर मंथन
अखिलेश के बयान के बाद भी मायावती खामोश हैं और उनके दल के नेता भी बोलने से बच रहे हैं। बसपा की इस खामोशी को वोट बैंक बचाए रखने की चिंता से जोड़कर देखा जा रहा है। दलित-मुस्लिम गठजोड़ को आधार बनाकर सूबे की सत्ता में वापसी की आस लगाए बैठी बसपा एक-एक कदम संभल कर उठा रही है। गठबंधन को लेकर गैर भाजपाई दलों के बीच शह-मात की सियासत भी जारी है। खासकर मुस्लिम वोटों को जोड़े रखने के लिए बसपा और सपा में होड़ पुरानी है। सपा जहां वाई-एम (यादव-मुस्लिम) के फार्मूले पर राजनीति में पैठ बनाए है तो बसपा को भी डी-एम (दलित मुस्लिम) गठजोड़ अधिक सुहाता है। मायातवी को डर है कि लोकसभा चुनाव के बाद उनका वोट बैंक कहीं फिर से सपा के साथ चला न जाए। इसी के कारण वह हर कदम सोच समझ कर उठा रही हैं। सूत्रों की मानें तो सपा के एक कद्दावर नेता ने बसपा प्रमुख को सलाह दी है कि वह सपा के बजाए कांग्रेस के साथ चुनाव के मैदान में उतरें। जबकि दूसरा गुट अखिलेश को पसंद कर रहा है।
इस लिए मौन धारण किए हैं बहन जी
पिछले विधानसभा चुनाव में मुस्लिमों का रुझान सपा की ओर अधिक होने से बसपा का सत्ता में वापसी का सपना बिखर गया था। करीब 25 साल बाद सपा के पास आई बसपा के सामने अपने दलित वोटों को बचाए रखने का संकट भी दिख रहा है। वहीं दलितों में भाजपा द्वारा अपने हिस्सेदारी बढ़ाने की कोशिशें भी बसपा को बेचैन किए हुए है। दोहरे संकट में फंसी हुई बसपा को मजबूरन गठबंधन को लेकर नरमी दिखानी पड़ रही है। सूत्रों का कहना है कि बसपा को अपना वजूद बचाए रखने के लिए मुस्लिमों को साथ रखना जरूरी होगा क्योंकि अति पिछड़ा वर्ग मोदी लहर में भाजपा को ताकत देने में जुटा है। बसपा के एक जोनल कोआर्डिनेटर का कहना है कि अगर सपा मजबूत होती है तो उसका सीधा नुकसान बसपा को ही होगा क्योंकि मुस्लिम वोटरों का जब तक सपा से मोह भंग नहीं होगा तब तक बसपा की सत्ता में वापसी संभव नहीं। इसलिए केवल लोकसभा चुनाव के लिए 2022 का चुनावी गणित बिगाड़ना बसपा के लिए ठीक नहीं होगा।
Updated on:
12 Jun 2018 12:48 pm
Published on:
12 Jun 2018 12:45 pm
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