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कांग्रेस का आज 136 वां स्थापना दिवस: अपने बुरे दिनों से जूझ रही और “हाथ” से फिसलती ‘कांग्रेस’

Published: Dec 28, 2020 09:19:04 am

Submitted by:

Ashutosh Pathak

Highlights.
– देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस का आज स्थापना दिवस – कांग्रेस को इस बार अपने भीतर से नई चुनौती भी मिली है – नेतृत्व परिवर्तन की मांग को लेकर फ्रंटलाइन लीडर दो मोर्चों में बंटे हैं
 

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अनंत मिश्रानई दिल्ली।

देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस का आज 136 वां स्थापना दिवस है। पार्टी मुख्यालय पर समारोह भी होगा, लेकिन अपने बुरे दिनों से जूझ रही कांग्रेस को इस बार अपने भीतर से नई चुनौती भी मिली है। कांग्रेस के भीतर नेतृत्व परिवर्तन की मांग को लेकर कांग्रेस के फ्रंटलाइन लीडर दो मोर्चों में बंटे हुए हैं। पार्टी के भीतर की ‘रार’ को थामने के लिए गांधी परिवार के भीतर से ‘ठंडी’ और ‘गर्म’ पहल हो रही है।
बावजूद इसके, आज के दिन के लिए सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या भारतीय जनमानस के मन से कांग्रेस उतर रही है या फिर यह पार्टी भारतीय मतदाता के मन को करीब से समझ ही नहीं पा रही है, या फिर समझने का प्रयास ही नहीं कर रही?
विपक्ष का भी दर्जा नहीं
कांग्रेस आज संकट के दौर से गुज़र रही है। लेकिन संकट का ऐसा दौर पार्टी ने पहले शायद ही कभी देखा हो। लगातार दो आम चुनावों में भाजपा से करारी हार का सामना करना पड़ रहा है। 2014 और 2019 में पार्टी लोकसभा में विपक्ष का दर्जा भी हासिल नहीं कर पाई। उत्तरप्रदेश, बिहार, पं. बंगाल और गुजरात जैसे राज्यों में पार्टी 25-30 साल से अपनी सरकार बनाने में सफल नहीं हो पाई है। महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश और दिल्ली जैसे राज्यों में भी पार्टी को करारी हार झेलनी पड़ रही है। कर्नाटक और मध्यप्रदेश में अपनी सरकारों को गिरने से नहीं बचा पाने की विफलता भी उसे सवालों के घेरे में खड़े कर रही है।
ऐसे ‘हाथ’ से फिसल गई कांग्रेस

आम चुनाव कुल सीटें
1952 – 364
1957 – 371
1962 – 361
1967 – 283
1971 – 352
1977 – 153
1980 – 351
1984 – 415
1989 – 197
1991 – 244
1996 – 140
1998 – 141
1999 – 114
2004 – 145
2009 – 206
2014 – 44
2019 – 52
( लोकसभा में चुनाव दर चुनाव पार्टी का प्रदर्शन )
वो छह वजहें, जिन्होंने कांग्रेस को कमजोर किया

1) पूरी पार्टी गांधी परिवार के भरोसे
बीते ढाई दशक से समूची पार्टी गांधी परिवार के भरोसे सिमटकर रह गई है। पार्टी को जोड़कर रखने में गांधी परिवार कामयाब रहा है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का मुकाबला करने के लिए पार्टी के पास चेहरे की कमी है। प्रियंका गांधी वाड्रा उत्तरप्रदेश की प्रभारी महासचिव हैं लेकिन 80 सीटों में से एक ही सीट मिली। हाल में यूपी के 7 विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में एक भी सीट जीतना तो दूर 4 सीटों पर जमानत तक जब्त हो गई। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि क्या सोनिया, राहुल अथवा प्रियंका मोदी के मुकाबले समर्थन जुटा सकते है?
2) जनाधार को तवज्जों नहीं
पार्टी की सर्वोच्च नीति निर्धारण समिति सीडब्ल्यूसी में आज भी ऐसे नेताओं की भरमार है जो जनता से कटे हुए हैं। समिति में शामिल मनमोहन सिंह, ए.के. एंटनी, गुलाम नबी आजाद, अंबिका सोनी, मुकुल वासनिक, आनंद शर्मा और तारिक अनवर का अपना कोई जनाधार नहीं। इसके मुकाबले अशोक गहलोत, अमरिंदर सिंह, भूपेंद्र सिंह हुड्डा, भूपेश बघेल और कमलनाथ सरीखे नेताओं को कांग्रेस कार्यसमिति में स्थान नहीं मिलना आश्चर्यजनक है।
3) दूसरी लाइन तैयार नही
देश की राजनीति में प्रभावी भूमिका तय करने के लिए कांग्रेस में दूसरी लाइन के नेताओं की टीम तैयार ही नहीं हो पा रही। ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट, मिलिंद देवड़ा और जितिन प्रसाद सरीखे नेताओं की उपेक्षा पार्टी की कमजोरी का मूल कारण मानी जा रही है। गुटबाज़ी के चलते अपनों को आगे लाने की जोड़-तोड़ कार्यकर्ताओं में निराशा का भाव पैदा कर रही है।
4) चिंतन-मनन से दूरी बनाई:-
पार्टी की लगातार हार के बावजूद संगठन स्तर पर विचार-विमर्श की पूरी परंपरा खत्म होती जा रही है। पार्टी के नेता हार के कारणों की समीक्षा करने की मांग उठाते रहे हैं लेकिन सुनने वाला कोई नहीं। पार्टी का आखिरी चिंतन शिविर सात साल पहले जयपुर में हुआ था। इसके बाद अनेक बार ऐसे शिविर आयोजित करने पर विचार हुआ लेकिन बात बनी नहीं। बड़े नेताओं की शिकायत यहीं हैं कि वे पार्टी को मजबूत करने की बात उठाए तो कहां?
5) चुनाव प्रबंधन की अधूरी तैयारी :-
लोकतंत्र में चुनावी नफा – नुकसान किसी भी राजनीतिक दल की सफलता – विफलता का मूल आधार होता है। भाजपा के मुकाबले पार्टी का चुनाव प्रबंधन तंत्र कमजोर साबित हो रहा है। ताजा उदाहरण सामने है। बिहार चुनाव जीतने के अगले दिन भाजपा ने प. बंगाल समेत पांच राज्यों के लिए कमर कस ली। पार्टी अध्यक्ष व शीर्ष नेताओं ने धुआंधार अभियान छेड़ दिया। दूसरी तरफ कांग्रेस आपसी खींचतान से ही बाहर नहीं निकल पा रही। चुनावी रणनीति बनाने में पिछड़ने के कारण भी पार्टी को चुनाव – दर – चुनाव हार का सामना करना पड़ रहा है।
6) राष्ट्रीय मुद्दों पर ढुलमुल रवैया:-
भाजपा विरोध की धार को तेज करने के प्रयास में अनेक मौकों पर पार्टी जन भावनाओं को समझने में भी शायद नाकाम रही। पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक के सबूत मांगने और चीन से तनातनी के बीच सरकार को घेरने की कोशिश का संदेश जनता में ठीक नहीं गया। कश्मीर से धारा 370 हटाने का विरोध करने के पीछे कांग्रेस की अपनी मजबूरियां हो सकती हैं। लेकिन देश के सामान्य जन ने कांग्रेस के इस विरोध को तवज्जों नहीं दी।

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