कोवैक्सीन के सहमति पत्र में साफ लिखा है कि कोवैक्सीन की क्लीनिकल एफिशिएंसी अभी स्थापित होनी है। इसका तीसरे फेज के ट्रायल में अध्ययन किया जा रहा है। साथ ही वैक्सीन लगवाने वाले को गंभीर परिणाम आने पर भारत बायोटेक मुआवजा देगी। यह मुआवजा आइसीएमआर की कमेटी तय करेगी। इसके साथ ही बीमार को इलाज का अधिकार भी मिलेगा। सहमति पत्र में साफ लिखा हुआ है कि सहमति देने से पहले सभी बातों को जानने का अधिकार है और इसकी जानकारी वैक्सीन देने वाले से ली जा सकती है। यानि, दूसरे शब्दों में कहें तो पत्र में दस्तखत करने का मतलब है कि आपको वैक्सीन के उपयोग और दूसरी चीजों के बारे में पूरी तरह से स्पष्ट किया जा चुका है।
डीसीजीआइ डॉ. वीजी सोमानी ने कहा था कि जिन लोगों को कोवैक्सीन टीके लगाए जाएंगे, उन्हें क्लीनिकल ट्रायल का हिस्सा माना जाएगा। उनसे सहमति पत्र भरवाया जाएगा। सवाल है कि कोई नियंत्रण समूह होगा। वे अधिकार जो सामान्य तौर पर किसी ट्रायल के वॉलिंटियर को मिलते हैं, क्या वही कोवैक्सीन लगवाने वालों को मिलेंगे? अब सवाल यही है कि अगर यह क्लिनिकल ट्रायल हो तो फिर सरकार ने 55 लाख वैक्सीन डोज का भुगतान क्यों किया?
कोवैक्सीन को मंज़ूरी दिए जाने पर खासा विवाद छिड़ा था। वैक्सीन की एफिकेसी यानी प्रभावकारिता को लेकर सवाल किए जा रहे हैं। भारत बायोटेक की बनाई कोवैक्सीन के तीसरे चरण का ट्रायल अभी जारी है और एफिकेसी डेटा अब तक उपलब्ध नहीं है। कई वैज्ञानिकों ने कोवैक्सीन को अप्रूवल दिए जाने की प्रक्रिया पर सवाल उठाते हुए कहा है कि ये नियामक के ही मापदंडों पर खरी नहीं उतरती।