अक्सर केंद्र में जिस पार्टी की सरकार होती है, उस पार्टी की विचारधारा से प्रभावित व्यक्ति को ही राज्यपाल बनाया जाता है। जब केंद्र और राज्य में एक ही पार्टी की सरकार होती है, तब तो मुख्यमंत्री और राज्यपाल के संबंध अच्छे रहते हैं। दोनों के बीच कोई खास दिक्कत नहीं होती, लेकिन जब राज्य में विपक्षी दल की सरकार होती है, तो मुख्यमंत्री और राज्यपाल के मध्य कुछ फैसलों को लेकर टकराव पैदा हो जाता है।
राज्यपाल का कार्यालय पिछले पांच दशकों से विवादास्पद रहा है। सबसे पहला विवाद 1959 में केंद्र और राज्य सरकार के मध्य राजनीतिक मतभेद की वजह से केरल के तत्कालीन गवर्नर द्वारा राज्य सरकार की बर्खास्तगी से शुरू हुआ था। इस विवाद ने 1967 में उत्तर-भारत के राज्यों में कई गैर-कांग्रेसी सरकारों के उभरने के बाद सबसे खराब रूप धारण कर लिया। पिछली सदी के आठवें दशक में दलबदल और मौकापरस्त राजनीति का एक नया दौर शुरू हुआ। ऐसे दौर में राज्यपाल की भूमिका न केवल महत्वपूर्ण हुई, बल्कि जटिल भी हुई। अचानक राज्यपाल का दफ्तर महत्वपूर्ण और विवादित हो चला। कई बार इस संवैधानिक संस्था की भूमिका पर सवाल भी खड़े हुए।
मंत्रियों की नियुक्ति हो या विधेयकों को स्वीकृति देना, इसी प्रकार राज्य सरकार के कई अन्य आदेश को राज्यपाल के नाम पर ही लिया जाता है। संविधान का अनुच्छेद 163 राज्यपाल को विवेकाधिकार की शक्ति प्रदान करता है अर्थात वह स्वविवेक संबंधी कार्यों में मंत्रिपरिषद की सलाह मानने के लिए बाध्य नहीं है। यदि किसी दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिलता है, तो राज्यपाल मुख्यमंत्री के चयन में भी अपने विवेक का उपयोग कर सकता है। किसी दल को बहुमत सिद्ध करने के लिए कितना समय दिया जाना चाहिए, यह भी राज्यपाल के विवेक पर निर्भर करता है। विवाद राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों और कार्यप्रणाली को लेकर भी है। अक्सर आरोप लगाया जाता है कि वह राज्य के संवैधानिक प्रमुख के रूप में कार्य करने के बजाय केंद्र सरकार के एजेंट के रूप में ही ज्यादा कार्य करते हैं।
2019 में 23 नवंबर की सुबह राज्यपाल कोश्यारी ने राज्य में लगाए गए राष्ट्रपति शासन को हटा दिया और बिना किसी को बताए और तमाम प्रथाओं का पालन न करते हुए अचानक देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री पद और अजीत पवार को उपमुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी थी। तब से शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी की महाविकास अघाडी सरकार के कोश्यारी के साथ टकराव के कई मामले सामने आ चुके हैं।
जुलाई, 2019 में राज्यपाल का पद संभालने के बाद से ही राज्यपाल जगदीप धनखड़ और ममता बनर्जी की टीएमसी सरकार के बीच खींचतान चल रही है। जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आ रहे हैं यह खींचतान और बढ़ती जा रही है। धनखड़ ने दावा किया कि बंगाल के लोगों के दिमाग में भय छा गया है और वे उसके बारे में खुलकर बात भी करने से डरे हुए हैं। वहीं, टीएमसी ने पलटवार करते हुए कहा कि राज्यपाल को इस तरह की बयानबाजी नहीं करनी चाहिए। उन्हें राज्य से वापस कर देना चाहिए।
जुलाई 2020 में गहलोत सरकार पर आए संकट के समय राज्यपाल कलराज मिश्र और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत में विवाद बढ़ गया। विधानसभा सत्र नहीं बुलाई जाने को लेकर गहलोत के समर्थन वाले विधायकों ने पांच घंटे तक धरना भी दिया। सचिन पायलट से विवाद के बाद सरकार के लिए खड़ी हुई मुश्किलों के बीच मुख्यमंत्री गहलोत ने पूर्ण बहुमत का दावा किया और कहा कि ऊपरी दबाव की वजह से राज्यपाल सत्र नहीं बुला रहे हैं।
राज्यपाल अनुसुइया उइके और भूपेश बघेल सरकार के बीच टकराव कम होने का नाम नहीं ले रहा है। अक्टूबर 2020 में विधानसभा का विशेष सत्र बुलाने को लेकर दोनों आमने-सामने हुए। इससे पहले उइके के सचिव सोनमणि बोरा के तबादले को लेकर भी विवाद हुआ। तब प्रदेश के संसदीय कार्य और कृषि मंत्री रविन्द्र चौबे ने राज्यपाल को ‘मर्यादा‘ में रहने की सीख दे डाली थी। मार्च 2020 में राज्यपाल और बघेल सरकार के बीच प्रदेश की कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता और जनसंचार विश्वविद्यालय और पंडित सुन्दरलाल शर्मा ओपन विश्वविद्यालय के कुलपतियों की नियुक्ति को लेकर भी विवाद हो गया था।
दिसंबर 2020 में भी एक बार फिर केरल में लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (एलडीएफ) की पिनराई विजयन सरकार और राज्यपाल आरिफ मोहम्मद ख़ान के बीच ठन गई। इससे पहले दिसंबर 2019 में केरल की सरकार ने विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया था। जिसमें केंद्र सरकार की ओर लाये गए नागरिकता संशोधन क़ानून को ख़ारिज करने का प्रस्ताव पारित किया गया था। इसके बाद केरल के राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच मतभेद पैदा हो गए थे।
दिल्ली पूर्ण राज्य न होकर अर्धशासी राज्य है। संविधान का अनुच्छेद 239ए दिल्ली को अपनी विधायी निर्वाचित सरकार होने के लिए विशेष दर्जा प्रदान करता है। यही संवैधानिक स्टेटस मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल के बीच बिग बॉस होने का टकराव पैदा करता है। अधिकारों को लेकर अक्सर अरविंद केजरीवाल की दिल्ली सरकार तथा उपराज्यपाल अनिल बैजल के बीच टकराव की स्थिति बन जाती है। पिछले कुछ वर्षों में ऐसा कई मौकों पर देखने को मिला है, फिर चाहे वह किसी के ट्रांसफर-पोस्टिंग का मसला हो या किसी फाइल को रोकने की बात हो या फिर कोरोना संकट के दौरान दिल्ली के अस्पतालों में बाहरी राज्यों के मरीजों के इलाज पर रोक लगाने का दिल्ली सरकार का फैसला हो।