28 दिसंबर 2025,

रविवार

Patrika LogoSwitch to English
home_icon

मेरी खबर

icon

प्लस

video_icon

शॉर्ट्स

epaper_icon

ई-पेपर

Movie Review ‘गुलाबो सिताबो’: जर्जर हवेली में तनातनी

'गुलाबो सिताबो' (Gulabo Sitabo) में लालची लोगों की फितरत पर अच्छा तंज कसा गया है। फिल्म के दोनों अहम किरदार मिर्जा (अमिताभ बच्चन) और बांके (आयुष्मान खुराना) लालच की गिरफ्त में हैं।

2 min read
Google source verification
Gulabo sitabo Movie Review

Gulabo sitabo Movie Review

दिनेश ठाकुर

कहावत में लालच को बुरी बला बताया गया है। फिर भी ज्यादातर लोग लालच से नहीं बच पाते। 'गुलाबो सिताबो' (Gulabo Sitabo) में लालची लोगों की फितरत पर अच्छा तंज कसा गया है। फिल्म के दोनों अहम किरदार मिर्जा (अमिताभ बच्चन) और बांके (आयुष्मान खुराना) लालच की गिरफ्त में हैं। एक सीन में बांके कहता है- 'लालच जहर के समान है' तो 78 साल के मिर्जा दहला जड़ते हैं-'लालच से आज तक कोई नहीं मरा।' कंजूसी के लिए मशहूर मिर्जा लखनऊ की बेहद पुरानी हवेली के मालिक हैं, जिसमें कई किराएदार बसे हुए हैं। बांके इनमें से एक है। वह आटा चक्की चलाता है। किराया नहीं चुकाने को लेकर मिर्जा से आए दिन उसकी चख-चख आम है। हवेली इस कदर जर्जर हो चुकी है कि जरा-से धक्के से उसकी एक दीवार ढह जाती है। बांके चाहता है कि मिर्जा हवेली की मरम्मत कराएं। मिर्जा किसी तरह के खर्च के मूड में नहीं हैं। उनका एक सूत्री कार्यक्रम है कि किराएदार समय पर किराया दें और हवेली की मरम्मत का जिक्र तक न करें।

इस तनातनी के बीच कहानी में पुरातत्व विभाग के चालाक अफसर गणेश (विजय राज) की एंट्री होती है। वह हवेली को हेरिटेज प्रॉपर्टी बनाने का झांसा देकर किराएदारों को सब्ज बाग दिखाना शुरू करता है तो मिर्जा प्रॉपर्टी के लफड़े सुलझाने वाले पाशा (ब्रिजेंद्र गौड़) के जरिए इन तिकड़मों में जुट जाते हैं कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। यानी किराएदारों से मुक्ति मिल जाए और हवेली उनके हाथ से न जाए।

शुक्रवार को अमेजन प्राइम पर 'गुलाबो सिताबो' का डिजिटल प्रीमियर हो गया। सीधे ओटीटी प्लेटफॉर्म पर आने वाली बड़े बजट की यह पहली फिल्म है। इसे देखते हुए इस साल चार ऑस्कर अवॉर्ड जीतने वाली दक्षिण कोरिया की 'पैरासाइट' (परजीवी) और सईद मिर्जा की 'मोहन जोशी हाजिर हो' (1984) रह-रहकर याद आती रही, क्योंकि इन दोनों फिल्मों में भी मकान मालिक और किराएदारों की कहानी है। यह अलग बात है कि टोटल ट्रीटमेंट के लिहाज से 'गुलाबो सिताबो' न 'पैरासाइट' की तरह चुस्त-दुरुस्त है और न यह 'मोहन जोशी हाजिर हो' जितनी धारदार है कि देखने वाला शुरू से आखिर तक बंधा रहे। कहानी एक ही पटरी पर चलती है और कुछ रीलों बाद बोझिल हो जाती है। निर्देशक शूजित सरकार को सलीके से कसी गई पटकथा मिलती तो यह हल्के-फुल्के मनोरंजन वाली अच्छी फिल्म हो सकती थी।

हमेशा की तरह अमिताभ बच्चन ने 'गुलाबो सिताबो' में लाजवाब अदाकारी की है। हर हाल में बाजी को अपनी तरफ मोडऩे की फिराक में रहने वाले सनकी और लालची बुजुर्ग के किरदार में वे चंदन में पानी की तरह घुल-मिल गए हैं। आयुष्मान खुराना की अदाकारी भी अच्छी है। अफसोस कि इन दोनों मंजे हुए कलाकारों को अच्छी पटकथा का सहारा नहीं मिला। मिला होता तो फिल्म को किनारा मिल गया होता।