बहरहाल, 'पंजाब के सारे गबरू लगाके टाइट हैं, अब लेडीज को ही कुछ करना होगा...' और 'जमीन बंजर तो औलाद भी बंजर...' जैसे कुछ एक डायलॉग्स की तारीफ की जा सकती है। कुलमिलाकर, गाली-गलौज को कम कर यदि सिक्रप्ट पर और मेहनत की जाती, तो शायद यह फिल्म दिल को छू जाती। ऐसे विषय जब रुपहले पर्दे के लिए उठाए जाते हैं, तो उस पर उसके असर पर सबसे ज्यादा ध्यान रखा जाता है। थोड़ी-सी चूक से वह फिल्म असरदार सिनेमा होते-होते रह जाती है। समाज में बदलाव, असरदार सिनेमा से ही संभव है, लेकिन उसे दर्शकों के सामने किस तरह परोसना है...यह बात सबसे अहम होती है। इस मामले में उड़ता पंजाब पूरी तरह से फेल रही।