14 दिसंबर 2025,

रविवार

Patrika LogoSwitch to English
home_icon

मेरी खबर

icon

प्लस

video_icon

शॉर्ट्स

epaper_icon

ई-पेपर

पलट भी सकता है वक्फ बिल का फैसला? जानें वो 11 ऐतिहासिक फैसले जिसमें मिली संशोधनों को चुनौती

कांग्रेस सांसद मोहम्मद जावेद और एआईएमआईएम अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया और इसकी संवैधानिकता पर सवाल उठाए।

3 min read
Google source verification

भारत

image

Anish Shekhar

Apr 05, 2025

वक्फ (संशोधन) विधेयक, 2025 को लेकर विवाद अभी थमने का नाम नहीं ले रहा है। संसद के दोनों सदनों से पारित होने के बाद इस बिल के खिलाफ सियासी हलचल तेज हो गई है। कांग्रेस सांसद मोहम्मद जावेद और एआईएमआईएम अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी ने शुक्रवार, 4 अप्रैल 2025 को सुप्रीम कोर्ट का रुख किया और इसकी संवैधानिकता पर सवाल उठाए। वहीं AAP नेता अमानतुल्लाह खान भी वक्फ बिल को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देंगे।

इन नेताओं का दावा है कि यह विधेयक संविधान के मूल ढांचे और अल्पसंख्यकों के अधिकारों का हनन करता है। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि क्या वक्फ बिल में किए गए संशोधनों को अदालत पलट सकती है? इतिहास गवाह है कि सुप्रीम कोर्ट ने कई मौकों पर संसद द्वारा पारित कानूनों को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर अहम फैसले सुनाए हैं। आइए, उन 11 ऐतिहासिक फैसलों पर नजर डालते हैं, जो इस संभावना को बल देते हैं।

ए.के. गोपालन बनाम मद्रास राज्य (1950): यह सुप्रीम कोर्ट का शुरुआती बड़ा फैसला था, जिसमें निवारक निरोध कानून की वैधता पर सवाल उठा। कोर्ट ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को प्राथमिकता दी और कुछ प्रावधानों को संशोधित करने का आधार तैयार किया। यह मामला संवैधानिक अधिकारों की रक्षा का प्रतीक बना।

शंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ (1951): इस केस में संविधान संशोधन की शक्ति पर बहस हुई। सुप्रीम कोर्ट ने संसद को संशोधन का अधिकार दिया, लेकिन बाद के फैसलों में इसकी सीमाएं तय की गईं। यह वक्फ बिल जैसे मामलों के लिए प्रासंगिक है, जहां संशोधन की संवैधानिकता पर सवाल उठ रहे हैं।

गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (1967): कोर्ट ने फैसला दिया कि संसद मौलिक अधिकारों को खत्म करने वाला संशोधन नहीं कर सकती। इसने संविधान की मूल संरचना की नींव रखी, जो वक्फ बिल के खिलाफ दायर याचिकाओं के लिए आधार बन सकती है।

केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973): यह ऐतिहासिक फैसला था, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने 'मूल संरचना सिद्धांत' को स्थापित किया। कोर्ट ने कहा कि संसद संविधान की मूल भावना को नहीं बदल सकती। वक्फ बिल पर भी इसी आधार पर हमला हो सकता है।

इंदिरा नेहरू गांधी बनाम राजनारायण (1975): इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इंदिरा गांधी को चुनावी कदाचार का दोषी ठहराया था। इसके बाद 39वें संशोधन को सुप्रीम कोर्ट ने मूल संरचना के खिलाफ बताकर रद्द किया। यह दिखाता है कि कोर्ट संशोधनों को पलटने में सक्षम है।

मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980): इस मामले में कोर्ट ने अनुच्छेद 368 के खंड (4) को असंवैधानिक करार दिया, जो न्यायिक पुनर्विलोकन को सीमित करता था। यह फैसला संवैधानिक संतुलन को मजबूत करता है और वक्फ बिल के लिए भी प्रासंगिक हो सकता है।

आईआर कोएलो बनाम तमिलनाडु राज्य (2007): कोर्ट ने तय किया कि 1973 के बाद नौवीं अनुसूची में शामिल कानून मूल संरचना के उल्लंघन के आधार पर चुनौती योग्य हैं। यह वक्फ संशोधनों की जांच के लिए रास्ता खोल सकता है।

यह भी पढ़ें: मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने राष्ट्रपति से मांगा समय, वक्फ संशोधन विधेयक पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता

नागरिकता (संशोधन) अधिनियम (2019): सीएए के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं दायर की गईं, लेकिन कोर्ट ने इस पर रोक लगाने से इनकार किया और धारा 6A को वैध ठहराया। यह दिखाता है कि कोर्ट हर मामले में हस्तक्षेप नहीं करता, पर सुनवाई जरूर करता है।

धारा 370 का निरस्तीकरण (2019): जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाने के फैसले को कोर्ट ने बरकरार रखा। यह सरकार के पक्ष में गया, लेकिन यह भी साबित करता है कि कोर्ट बड़े संशोधनों की समीक्षा करता है।

इलेक्टोरल बॉन्ड मामला (2024): सुप्रीम कोर्ट ने इलेक्टोरल बॉन्ड को असंवैधानिक करार दिया और इसे सूचना के अधिकार का उल्लंघन बताया। यह सरकार के लिए झटका था और दिखाता है कि कोर्ट संशोधनों को रद्द कर सकता है।

आरटीआई संशोधन (2019): सूचना के अधिकार में संशोधन को भी कोर्ट में चुनौती दी गई थी। हालांकि फैसला लंबित है, यह मामला कोर्ट की भूमिका को रेखांकित करता है।

इन फैसलों से साफ है कि सुप्रीम कोर्ट के पास संशोधनों को पलटने की शक्ति है, खासकर जब वे संविधान की मूल संरचना या मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हों। वक्फ बिल पर ओवैसी और जावेद की याचिकाएं भी इसी आधार पर टिकी हैं। अब यह कोर्ट पर निर्भर है कि वह इसे स्वीकार करता है या नहीं।