
भारतीय सेना (प्रतीकात्मक तस्वीर - IANS)
बाड़मेर। मैं कान सिंह सोढ़ा… 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध का साक्षी हूं। युद्ध के करीब 54 साल बाद आज 2025 में मैं सीमा पर खड़ा हूं। रेत अब भी वही है, हवा की आवाज भी वही है। आंखें बंद करता हूं तो यह शांत रेगिस्तान अचानक 1971 में बदल जाता है। गोलियों की आवाज, कमांड की फुसफुसाहट…सब कुछ फिर से सामने आ जाता है। 1968 में वर्दी पहनी थी। तब नहीं पता था कि यह रेगिस्तान एक दिन मेरे जीवन का सबसे बड़ा इम्तिहान लेगा। मैं 10 पैरा कमांडो में हवलदार था। हमारे कमांडेंट ब्रिगेडियर भवानी सिंह थे। तकनीक के नाम पर हमारे पास सिर्फ नक्शा, कंपास और अनुभव था। आज जैसे मोबाइल, ड्रोन, सैटेलाइट हैं, उस समय कुछ भी नहीं था, लेकिन हौसले की कमी कभी नहीं रही।
वह तारीख आज भी दिल में दर्ज है। आदेश मिला- सिंध सेक्टर में छाछरो, इस्लामाकोट, वीरावास पर हमला करना है। जोधपुर से रवाना हुए। पांच दिसंबर को चौहटन के पास विरात्रा मंदिर के पास बेस बनाया। रात ठंडी थी, वहीं से रैकी शुरू हुई। इलाका दुश्मन का था, लेकिन जमीन हमारी समझ में आनी जरूरी थी। लक्ष्मण सिंह छाछरो के रहने वाले थे, इलाके को अच्छी तरह जानते थे। बलवंत सिंह बाखासर का वहां खास प्रभाव था। मुझे भेजा गया। ब्रिगेडियर भवानी सिंह से उनकी मुलाकात करवाई। दोनों ने बिना हिचक सेना का साथ देने की बात कही।
हम स्वरूप का तला पहुंचे। छह-सात किलोमीटर चलकर खिता गांव के पास कमांडो बेस बनाया। तभी अचानक फायरिंग हुई। गोलियां हमारे सिर के ऊपर से निकल गईं। हमने जमीन से लगकर देखा फायरिंग कहां से हो रही है, कौन-से हथियार हैं। जैसे ही जवाबी फायर किया, पाकिस्तानी सैनिक घबरा गए। उनके पास भारी हथियार नहीं थे। कुछ लोगों को पकड़ा। छाछरो हमारे कब्जे में था।
पाकिस्तानी सैनिक फायरिंग के बाद छाछारों से एक किलोमीटर आगे ऊपर टीले पर जाकर निगरानी कर रहे थे। हमने बिना समय गंवाए हमला किया। 7 दिसंबर की सुबह, चार बजे से पहले छाछरो हमारे कब्जे में था। सुबह पाकिस्तानी हवाई जहाज आसमान में मंडराने लगे। लेकिन वे हमें देख नहीं पाए। भारतीय वायुसेना के जहाज आए। उनकी गड़गड़ाहट सुन पाकिस्तानी विमान भाग निकले। हेलीकॉप्टर से हमारी बटालियन छाछरो में उतार दी गई। शाम को वीरावास पर धावा बोल दिया।9 दिसंबर की सुबह वीरावास भी हमारे कब्जे में था।
10 दिसंबर को जोधपुर लौटे। 48 घंटे बाद फिर आदेश आया इस्लामाकोट और कच्छ के लिए कूच करने का आदेश मिला। इस्लामाकोट के पास सुंदरगांव पाकिस्तान के कब्जे में था, चारों तरफ पहाड़ियां थीं। पहले दिन उनकी टेलीफोन लाइन काटी। सूरज निकलने से पहले हमने हमला कर दिया। दुश्मन संभल ही नहीं पाया। 18 दिसंबर को जब हम वापस लौट रहे थे, तो पाकिस्तान को खबर लग गई। उन्होंने हमला कर दिया। जवाबी कार्रवाई में 17-18 पाकिस्तानी सैनिक मारे गए, कुछ घायल हुए और 9 को पकड़ लिया गया।
जयपुर में मोती डूंगरी से आशीर्वाद स्वरूप ज्योत ली गई। वह गाड़ी में रखी। वह ज्योत बटालियन के साथ-साथ चलती रही। ब्रिगेडियर भवानी सिंह ने सभी को ज्योत का हवाला देते हुए कहा कि कसम खाओ कि किसी पर अन्याय नहीं करेंगे। कोई चीज नहीं उठाएंगे, किसी महिला को हाथ नहीं लगाएंगे। हमारे धर्म कि खिलाफ काम नहीं करेंगे। युद्ध के बाद सभी जवान मोती डूंगरी गए।
Updated on:
16 Dec 2025 04:28 pm
Published on:
16 Dec 2025 06:01 am
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