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ईसा मसीह: इस्लाम में सम्मान, ईसाइयत में आस्था; फिर भी मुसलमान क्यों नहीं मनाते Christmas ?

Jesus in Islam: जानिए कुरान और बाइबिल के अनुसार ईसा मसीह के जन्म की असली कहानी। क्यों इस्लाम में हजरत ईसा अलैयहिस्सलाम को पैगंबर मानने के बावजूद क्रिसमस का त्योहार नहीं मनाया जाता, समझें इसके पीछे के ठोस धार्मिक कारण।

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भारत

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MI Zahir

Dec 24, 2025

Christmas special

क्रिसमस पर ईसाई समुदाय में खुशियों का माहौल। (फोटो: पत्रिका)

Jesus christ in Islam vs Christianity : वो फिलीस्तीन की गलियों का मुसाफिर शहजादा, जिसका लहजा था शकर, जिसका था पैगाम सादा। कांटों के ताज ने जिसकी दी चमक को जबां, वो जो सूली पे भी देता रहा हक की अजां। जी हां! दुनिया भर में दिसंबर का महीना आते ही हर तरफ क्रिसमस की चर्चा शुरू हो जाती है। ईसाई समुदाय यह त्योहार ईसा मसीह (जीसस क्राइस्ट) के जन्मदिन के रूप में मनाता है। दिलचस्प बात यह है कि ईसा मसीह केवल ईसाइयों के लिए ही नहीं, बल्कि मुसलमानों के लिए भी बहुत सम्मानित व आदरणीय हैं। कुरान में उनका बार-बार सम्मान के साथ उल्लेख आया है। अब सवाल यह है कि इसके बावजूद, दुनिया भर के मुसलमान क्रिसमस के उत्सव से दूरी बना कर क्यों रखते हैं। मुसलमान उन्हें पैगंबर मानते हैं और ईसाइयों की नजर में वे ईश्वर के पुत्र हैं। आइए, धार्मिक ग्रंथों और प्रामाणिक तथ्यों के आईने में इस विरोधाभास को समझते हैं।

इस्लाम और ईसाइयत में कितनी समानताएं

धर्म और Theology के जानकारों के बीच यह बहस हमेशा दिलचस्प रही है कि हजरत ईसा (अ.) को लेकर इस्लाम और ईसाइयत में कितनी समानताएं हैं। कुरान में ईसा मसीह का जिक्र जितनी तफ्सील और इज्जत के साथ किया गया है, वह उनकी अहमियत को दर्शाता है। लेकिन जब बात क्रिसमस मनाने की आती है, तो धार्मिक सिद्धांतों के बुनियादी फर्क के कारण मुसलमानों का नजरिया ईसाइयों से बिल्कुल अलग हो जाता है।

ईसा अलैयहिस्सलाम की दुनिया में आमद

ईसा मसीह के जन्म स्थान को लेकर बाइबिल और कुरान एकमत हैं-उनका जन्म बेथलेहम (फिलिस्तीन) में हुआ था। लेकिन समय को लेकर दोनों के शोध अलग हैं।

बाइबिल और परंपरा: ईसाई धर्म में 25 दिसंबर को प्रतीकात्मक रूप से उनके जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है। हालांकि, बाइबिल में किसी निश्चित तिथि का उल्लेख नहीं है।

कुरान का वैज्ञानिक संकेत: कुरान की 'सूरा मरयम' में बताया गया है कि जब हजरत मरयम को प्रसव पीड़ा हुई, तो अल्लाह ने उन्हें खजूर के पेड़ को हिलाने का निर्देश दिया, जिससे ताजा खजूरें गिरीं। वनस्पति विज्ञान के अनुसार, खजूर की फसल गर्मियों या शुरुआती पतझड़ (जुलाई-सितंबर) में आती है। इस आधार पर मुस्लिम विद्वान मानते हैं कि उनका जन्म सर्दियों (दिसंबर) में नहीं हुआ था।

इस्लामी पक्ष: कुरान और हदीस के अनुसार ईसा अलैयहिस्सलाम का स्थान।

इस्लाम में ईसा अलैयहिस्सलाम को 'ईश्वर' या 'ईश्वर का पुत्र' नहीं, बल्कि अल्लाह का एक महान पैगंबर (नबी) माना जाता है।

मोजजे (चमत्कार): इस्लामी धारणा है कि अल्लाह के हुक्म से हजरत ईसा पालने में बोले थे, उन्होंने मिट्टी के पक्षी में फूंक मार कर जान डाल दी थी और वे कोढ़ियों को ठीक कर देते थे।

ईसाई मत से भिन्नता: कुरान की 'सूरा अल-इखलास' स्पष्ट करती है कि अल्लाह न किसी का पिता है और न ही उसकी कोई संतान है। यही मुख्य कारण है कि मुसलमान ईसा (अलैयहिस्सलाम) को पैगंबर तो मानते हैं, लेकिन उनके जन्मदिन को 'ईश्वर के पुत्र के उत्सव' (क्रिसमस) के रूप में नहीं मनाते।

ईसाई पक्ष: बाइबिल के अनुसार मसीह की दिव्यता

ईसाई धर्म के अनुसार, यीशु केवल एक मार्गदर्शक नहीं, बल्कि स्वयं 'देहधारी ईश्वर' हैं।

पवित्र त्रित्व (Trinity): ईसाई धर्म 'पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा' के सिद्धांत पर आधारित है। उनके लिए यीशु का जन्म मानवता को पापों से मुक्ति दिलाने के लिए ईश्वर का धरती पर आगमन है।

बलिदान का सिद्धांत: बाइबिल (यूहन्ना 3:16) के अनुसार, ईश्वर ने अपने इकलौते पुत्र को इसलिए भेजा ताकि जो कोई उन पर विश्वास करे, वह अनंत जीवन पाए। ईसाइयों के लिए क्रिसमस उस 'उद्धारकर्ता' के आने की खुशी है।

मुस्लिम और ईसाई विद्वानों का क्या है तर्क ?

मुस्लिम विद्वानों का मत: प्रसिद्ध इस्लामी जानकारों का तर्क है कि इस्लाम में केवल दो त्योहार (ईद) निर्धारित हैं। वे कहते हैं कि ईसा (अ.) का सम्मान उनके बताए रास्ते पर चलने में है, न कि उन परंपराओं को अपनाने में जो बाद में जोड़ी गईं। विद्वानों के अनुसार, 25 दिसंबर का संबंध प्राचीन रोमन संस्कृति के 'सूर्य उत्सव' से था, जिसे बाद में ईसाई धर्म में शामिल कर लिया गया।

ईसाई विद्वानों का मत

ईसाई धर्मशास्त्रियों का कहना है कि तारीख महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि 'संदेश' महत्वपूर्ण है। वे तर्क देते हैं कि यीशु का जन्म प्रेम और शांति का प्रतीक है। उनके अनुसार, क्रिसमस मनाना ईश्वर के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का एक तरीका है।

क्या यह केवल धार्मिक है या सांस्कृतिक ?

आज के दौर में क्रिसमस एक धार्मिक त्योहार के साथ-साथ एक वैश्विक सांस्कृतिक उत्सव बन गया है। कई आधुनिक मुस्लिम देशों में (जैसे दुबई या तुर्की) इसे व्यापारिक और पर्यटन के नजरिए से देखा जाता है, लेकिन धार्मिक रूप से इसे 'इबादत' का हिस्सा नहीं माना जाता।

दोनों धर्मों के बीच एक सेतु

यह विषय हमेशा से ही अंतर-धार्मिक संवाद का केंद्र रहा है। जहां एक ओर कट्टरपंथी सोच दूरियां पैदा करती है, वहीं सूफी संत और उदारवादी विचारक ईसा (अ.) को 'प्रेम के प्रतीक' के रूप में दोनों धर्मों के बीच एक सेतु (पुल) मानते हैं।

कुरान और बाइबिल में 'दोबारा आगमन की अवधारणा

हजरत ईसा के अलैयहिस्सलाम के 12 शिष्य थे, जिन्हें अरबी में 'हवारी' और अंग्रेजी में 'एपॉस्टल्स' (Apostles) कहा जाता है, इनकी इस्लाम और ईसाइयत दोनों में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। कुरान और बाइबिल दोनों इस बात की पुष्टि करते हैं कि इन शिष्यों ने ईसा मसीह का मिशन आगे बढ़ाने में अपना जीवन समर्पित कर दिया था।

कुरान में 'हवारियों' का उल्लेख

कुरान में इन शिष्यों को बहुत ही नेक और वफादार मोमिन (आस्थावान) बताया गया है। जब हजरत ईसा अलैयहिस्सलाम ने महसूस किया कि बनी इसराइल के लोग उनकी बात नहीं मान रहे हैं, तो उन्होंने पुकारा:

"अल्लाह की राह में मेरा मददगार कौन है?" तब हवारियों ने जवाब दिया: "हम अल्लाह के मददगार हैं, हम अल्लाह पर ईमान लाए और आप गवाह रहें कि हम मुसलमान (आज्ञाकारी) हैं।" (सूरा अल-इमरान: 52)

इस्लामी विद्वानों के अनुसार, ये 12 शिष्य शुद्ध हृदय वाले लोग थे जिन्हें अल्लाह ने ईसा अलैयहिस्सलाम की सहायता के लिए चुना गया था। कुरान की 'सूरा अल-मायदा' में उस मशहूर दस्तरख्वान (आसमानी भोजन) का भी जिक्र है, जिसकी मांग इन्हीं हवारियों ने की थी। दस्तरख्वान उस कपड़े को कहा जाता है, जिस पर खाना खाया जाता है।

बाइबिल के अनुसार 12 शिष्यों के नाम

बाइबिल के 'मत्ती के सुसमाचार' (Gospel of Matthew) में इन 12 शिष्यों के नाम स्पष्ट रूप से दिए गए हैं:

शमौन (पतरस/Peter): इन्हें शिष्यों का नेता माना जाता है।

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अन्द्रियास (Andrew): पतरस के भाई।

याकूब (James): जब्दी के बेटे।

योहन्ना (John): याकूब के भाई, जिन्हें 'प्रिय शिष्य' कहा जाता है।

फिलिप्पुस (Philip)

बरतुलमै (Bartholomew)

थोमा (Thomas): इन्हें 'शकी थोमा' भी कहा जाता है, जिन्होंने भारत तक ईसाई धर्म का प्रचार किया।

मत्ती (Matthew): जो पहले एक कर वसूल करने वाले थे।

याकूब (James): हलफई के पुत्र।

तद्दै (Thaddaeus)

शमौन कनानी (Simon the Zealot)

यहूदा इस्करियोती (Judas Iscariot): (ईसाई मत के अनुसार इन्होंने ही यीशु के साथ विश्वासघात किया था, हालांकि इस्लामी पक्ष इस पर अलग राय रखता है)।

हवारियों का मिशन और शिक्षाएं

इस्लामी दृष्टिकोण: मुस्लिम विद्वान मानते हैं कि हवारियों ने ईसा के जाने के बाद अल्लाह के एकेश्वरवाद (तौहीद) का प्रचार किया। उन्होंने लोगों को 'इंजील' की शिक्षाएं दीं।

ईसाई दृष्टिकोण: ईसाई विद्वानों का मानना है कि इन 12 शिष्यों ने यीशु के पुनर्जीवित होने की गवाही दी और दुनिया के कोने-कोने में जा कर चर्च की स्थापना की। इनमें से अधिकतर को उनके इस विश्वास के कारण शहीद कर दिया गया था।

एक दिलचस्प अंतर (धोखा किसने दिया ?)

यहां एक बड़ा वैचारिक अंतर है। जहां ईसाई धर्म मानता है कि यहूदा इस्करियोती ने चांदी के सिक्कों के लिए यीशु को दुश्मनों के हवाले कर दिया, वहीं कई इस्लामी व्याख्याओं (तफसीर) में यह उल्लेख मिलता है कि जब दुश्मनों ने ईसा अलैयहिस्सलाम को घेर लिया, तो अल्लाह ने ईसा अलैयहिस्सलाम को आसमान पर उठा लिया और उनकी जगह उस व्यक्ति का चेहरा ईसा अलैयहिस्सलाम जैसा कर दिया, जिसने उनके साथ गद्दारी की थी, और वह व्यक्ति (यहूदा) ईसा अलैयहिस्सलाम समझ कर सूली पर चढ़ा दिया गया। इसके उलट ईसाई अवधारणा है कि उन्हें ही सूली पर चढ़ाया गया।