कृषि और किसान: मुक्त बाजार नहीं, समस्या का हल संतुलित बाजार
- हमारे पास किसानों को फसल के वाजिब दाम दिलाने वाली बाजार प्रणाली नहीं है। समस्या ढांचागत है और समाधान एफपीओ नहीं हैं

एम.एस. श्रीराम (प्रोफेसर, सेंटर फॉर पब्लिक पॉलिसी, आइआइएम बेंगलूरु)
न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी को कानूनी दायरे में लाने को लेकर बहस बढ़ती जा रही है। एमएसपी के खिलाफ दिए जाने वाले कुछ तर्क हैं - इसका लाभ केवल 6 प्रतिशत किसानों को मिलता है जो ज्यादातर पंजाब और हरियाणा के हैं, यह चावल और गेहूं तक सीमित है इसलिए यह स्थान विशेष की समस्या है, इसे कानून के दायरे में लाया गया तो निजी क्षेत्र के व्यापारी हाथ खींच लेंगे और किसानों को और ज्यादा परेशानी का सामना करना पड़ सकता है, और यदि सरकार सार्वजनिक वितरण या बफर स्टॉक के लिए जितना जरूरी है, उससे अधिक खरीद कर लेगी तो नुकसान उठाकर भंडारण करना पड़ेगा जिससे राजस्व घाटा बढ़ेगा।
ये तर्क देने वाले समाधान सुझाते हैं कि सरकार बफर स्टॉक की जरूरत पूरी होने तक बाजार में दखल दे, बाजार को ही कीमतों के निर्धारण की छूट दे, सार्वजनिक वितरण प्रणाली की जगह प्रत्यक्ष लाभ स्थानांतरण लागू करे, दस हजार किसान उत्पादक संगठनों (एफपीओ) को प्रोत्साहित करे और वेल्यू चेन का नियंत्रण किसानों के हाथों में सौंप दे। ये सारे तर्क एमएसपी की मूलभूत अवधारणा और व्यवहार्य कृषि के खिलाफ हैं। कृषि लागत एवं मूल्य आयोग, कृषि की लागत और पारिवारिक श्रम के योग पर एक अतिरिक्त राशि के आधार पर एमएसपी का निर्धारण करता है। इससे कम कीमत पर किसानों को घाटा होना तय है।
मूल समस्या यह है कि हम उपभोग क्षमता से अधिक चावल और गेहूं का उत्पादन करते हैं और फिर उसका भंडारण करते हैं। हमारे पास किसानों को फसल के वाजिब दाम दिला सकने वाली बाजार प्रणाली नहीं है। समस्या ढांचागत है और इसका समाधान एफपीओ नहीं हैं। एफपीओ मूल्य निर्धारण के लिए नैतिक दबाव अवश्य बनाते हैं, भले ही वह एमएसपी से कम ही क्यों न हो। इस स्थिति में अगर घाटा होता है तो इसका दोष भी उन्हीं को दिया जाता है। जैसे ही वे रुग्ण की गिनती में आते हैं, निजी क्षेत्र उनकी मदद के लिए मसीहा बन कर सामने आता है। हम इलाज तो किसानों की भुखमरी का करते हैं और पोषण रूपी सहायता बाजार को उपलब्ध करवाते हैं। एमएसपी का विरोध पर्याप्त साक्ष्य दे रहा है कि बाजार इसकी कीमत चुकाने को तैयार नहीं हैं। इसका मतलब यह हुआ कि किसानों को धान-गेहूं की खेती कुछ कम कर देनी चाहिए ताकि बाजार संतुलन स्थापित हो सके।
सिंचाई के लिए अत्यधिक पानी की खपत वाली इन फसलों के अधिक उत्पादन से पारिस्थितिकी को नुकसान पहुंचता है। इस बात पर पत्रकार पी. साईनाथ, कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी से सहमत हैं। समस्या के हल के लिए अभिनव प्रोत्साहन तंत्र विकसित करने की जरूरत है, जिसमें वैकल्पिक फसलों के लिए प्रभावी एमएसपी को शामिल किया जाए। इस समस्या के लिए मुक्त बाजार समाधान से व्यवस्था बिगड़ेगी ही और गड़बडिय़ों की आशंका जन्म लेगी। कुशल बाजार संतुलन की नींव किसानों के दिवालियेपन और आत्महत्याओं की कब्रगाह पर नहीं रखी जा सकती। जेब की गुंजाइश, ताकत और अतिसंवेनशीलता के लिहाज से किसान और व्यापारी के बीच का संबंध बेहद असमान है। इसीलिए किसानों को बुवाई से पहले एक आश्वासन की जरूरत होती है, इसीलिए कृषि में पूर्व अनुबंधित कीमतों की अहमियत है। हमारे पास बिजली खरीद समझौतों के उदाहरण हैं और एनरॉन मामले में तो न्यूनतम मुनाफे का वादा भी किया गया था।
इसी तर्ज पर अगर कुशल बाजार के आधार पर सुनहरा दौर लाने का वादा किया जाए तो यह स्वागत योग्य है! सरकार को शीघ्र अति शीघ्र सार्वजनिक तौर पर औद्योगिक घरानों से कानूनी तौर पर फसल खरीद की कीमत और मात्रा के निर्धारण को लेकर बातचीत करनी चाहिए।
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