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अक्षय तृतीया : तीर्थंकर आदिनाथ का इस दिन हुआ था 13 माह बाद आहार

प्रथम तीर्थंकर की प्रथम आहारचर्या तथा प्रथम दानतीर्थ प्रवर्तन की सूचना मिलते ही देवों ने तथा भरत चक्रवर्ती सहित समस्त राजाओं ने भी श्रेयांसकुमार का अतिशय सम्मान किया। भरत क्षेत्र में इसी दिन से आहार दान देने की प्रथा का शुभारम्भ हुआ।

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भागचंद जैन मित्रपुरा
अध्यक्ष, अखिल भारतीय जैन बैंकर्स फोरम, जयपुर

भारतीय संस्कृति में वैशाख शुक्ल तृतीया का बड़ा ही महत्व है। इस दिन को सामान्य बोलचाल में आखा तीज या अक्षय तृतीया भी कहा जाता है। जैन दर्शक के अनुसार इस दिन प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ को आहारदान देकर युवराज श्रेयांसकुमार ने अक्षय पुण्य प्राप्त किया था। अतः यह तिथि अक्षय तृतीया कहलाती है। तीर्थंकर आदिनाथ ने मुनि अवस्था में तेरह माह बाद आहार ग्रहण किया था।

हुंडावसर्पिणी के तृतीय काल में अयोध्या में राजा नाभिराय एवं रानी मरूदेवी का राज्य था। उनके यहां ऋषभनाथ का जन्म हुआ था। उस समय मनुष्य भोगभूमि का जीवन जी रहे थे। मनुष्य की सभी आवश्यकताएं कल्पवृक्ष से पूरी हो जाया करती थी। लेकिन, धीरे-धीरे कल्पवृक्ष की शक्तियां कम होती गईं। भोगभूमि की रचना मिटने लगी और कर्मभूमि की रचना प्रारंभ हो रही थी। उस समय वर्षा होने से खेतों में अपने आप तरह-तरह के धान्य, वृक्षों के अंकुर उत्पन्न होकर समय पर योग्य फल देने वाले हो गए थे। लेकिन, ये एक बार पैदा होकर नष्ट हो गए थे। खाने पीने की समस्या उत्पन्न हो गई थी। भोग भूमि बिल्कुल मिट चुकी थी और कर्म युग का प्रारंभ हो गया था, परंतु लोग कर्म करना जानते नहीं थे। इसलिए वे भूख प्यास से दुखी होने लगे। उस समय ऋषभनाथ ने मानव जाति को आवश्यक ज्ञान दिया। उन्होंने मनुष्य को अपनी आजीविका चलाने के लिए निम्न वर्णित षट्-कर्मों आदि की शिक्षाएं दी।
असि- रक्षा करने के लिए अर्थात सैनिक कर्म
मसि - लिखने का कार्य अर्थात लेखन
कृषि - खेती करना अर्थात् अन्न उगाना
वाणिज्य- व्यापार से संबंधित
विद्या ज्ञान प्राप्त करने से संबंधित कर्म- गायन, वाद्य, चित्रकारी आदि
शिल्प- दस्तकारी अर्थात् मूर्तियों, नक्काशियों, भवनों इत्यादि का निर्माण।

ऋषभनाथ जिन्हें आदिनाथ भी कहा जाता है ने ही लोगों को सुनियोजित तरीके से सभी तरह के कार्य करना सिखाया था। इसी तरह अपनी पुत्रियों ब्राह्मी को लिपि—विद्या एवं सुंदरी को अंक—विद्या का ज्ञान कराकर, इन विद्याओं को आम जन में प्रसारित करवाया। उन्होंने प्रथम बार अपनी नगरी अयोध्या में शासन-व्यवस्था, नियम-सिद्धांत, अधिकार-कर्तव्य इत्यादि की स्थापना की थी। इसके बाद सब कुछ नियमों के अनुसार चलने लगा तथा धर्म की स्थापना हुई। जैन दर्शन के अनुसार इस तरह भोग भूमि से कर्मभूमि के रूप में युग परिवर्तन हुआ।
इस तरह आदिनाथ का पूर्ण व्यक्तित्व प्रकट होने पर महाराज नाभिराय ने उनका राज्याभिषेक कर दिया। एक दिन दरबार में नर्तकी नीलांजना की नृत्य के दौरान मृत्यु होने से जब आदिनाथ को जीवन से वैराग्य हो गया तो उन्होंने जैन धर्म की दीक्षा ली तथा छह महीने का उपवास लेकर तपस्या प्रारम्भ कर दी। छह माह बाद जब उनकी तपस्या पूरी हुई, तब भी शरीर को भूख—प्यास की पीड़ा नहीं थी। लेकिन, वे आहार को निकले ताकि आने वाले समय में मुनिराजों को आहार के लिए पड़गाहन की विधि के बारे में श्रावकों को पता रहे एवं मुनिराज भी आगमानुसार आहारचर्या का पालन कर सकें।

ध्यान रहे, ऋषभदेव के त्याग को देखते हुए उनके साथ कई राजा व प्रजा के लोग भी आए ये थे, उन्होंने भी संन्यास ले लिया था। इसमें उनके पुत्र व प्रपोत्र भी थे। श्रावकों को आहार देने की विधि एवं आहार सामग्री का पता नहीं था। फिर भी वे अपनी सूझबूझ से उन्हें आभूषण, हीरे-मोती इत्यादि बहुमूल्य वस्तुएं लेने के लिए आग्रह करते थे। छह माह पश्चात भी आहार विधि नहीं मिली तो ज्यादातर साधुओं में व्याकुलता होने लगी और वे भूख-प्यास से बेहाल होने लगे। तब उनमे से कई ने जैन धर्म के कठिन तप को छोड़कर अन्य मतों/ संप्रदायों की शुरुआत की।
इस बीच भगवान आदिनाथ को बिना आहार ग्रहण किए हुए 13 माह से अधिक हो गए थे। एक दिन वे भ्रमण करते हुए हस्तिनापुर पहुंचे । मुनिराज के आगमन का ज्ञात होने पर राजा सोमप्रभ एवं युवराज श्रेयांस कुमार दोनों मुनि ऋषभनाथ के पास आए। ऋषभनाथ को देखते ही श्रेयांस कुमार को जाति स्मरण हो गया एवं पूर्वभव में दिगंबर मुनि को दिए गए आहार का दृश्य सामने आ गया। प्रात:काल का समय था। नवधाभक्ति के साथ पड़गाहन करके श्रेयांस कुमार ने राजा सोमप्रभ एवं रानी लक्ष्मीमती के साथ ऋषभनाथ को आहार करवाया। प्रथम आहार के रूप में ऋषभनाथ को इक्षुरस का पान कराया। उन्होंने लगभग 13 माह से अधिक समय के बाद कुछ ग्रहण किया था, इसलिए इस दिन का महत्व बढ़ गया था। यह दिन वैशाख शुक्ल तृतीया थी जिसे आज अक्षय तृतीया के रूप में मनाया जाता हैं।

प्रथम तीर्थंकर की प्रथम आहारचर्या तथा प्रथम दानतीर्थ प्रवर्तन की सूचना मिलते ही देवों ने तथा भरत चक्रवर्ती सहित समस्त राजाओं ने भी श्रेयांसकुमार का अतिशय सम्मान किया। भरत क्षेत्र में इसी दिन से आहार दान देने की प्रथा का शुभारम्भ हुआ।
पूर्व भव का स्मरण कर राजा श्रेयांस ने जो दानरूपी धर्म की विधि संसार को बताई, उसे दान का प्रत्यक्ष फल देखने वाले भरत आदि राजाओं ने बहुत श्रद्धा के साथ श्रवण किया। लोक में श्रेयांस कुमार दानतीर्थ प्रवर्तक की उपाधि से विख्यात हुए। दान सम्बन्धित पुण्य का संग्रह करने के लिये नवधाभक्ति जानने योग्य है।
भगवान की ऋद्धि तथा तप के प्रभाव से राजमहल में बना भोजन अक्षीण (खत्म न होने वाला यानी अक्षय) हो गया था। अतः आज भी यह तिथि अक्षय तृतीया के नाम से लोक में प्रसिद्ध है।
ऐसा भी कथन है कि आहार दान देकर युवराज श्रेयांसकुमार ने अक्षय पुण्य प्राप्त किया था। अतः यह तिथि अक्षय तृतीया कहलाती है। इसी कारण अक्षय तृतीया को लोग इतना शुभ मानते है कि इस दिन बिना मुहूर्त, लग्नादि के विचार के ही अबूझ सावा( मुहूर्त) मानते हुए विवाह, नवीन गृह प्रवेश, नूतन व्यापार मुहूर्त आदि सभी शुभ कार्य करते हैं। मान्यता है कि इस दिन प्रारम्भ किया गया नवीन कार्य नियमतः सुफल देता है। अतः यह अक्षय तृतीया पर्व अत्यन्त उत्कृष्ट है है।