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Patrika Opinion: ‘बाड़ेबंदी’ चुनाव सुधारों के प्रयास में बड़ी बाधा

अब तक के अनुभव बताते हैं कि जो दल सत्ता की दौड़ में कहीं नजर नहीं आते वे भी सियासी फायदे की खातिर राजनीति में घुस आई अहम बुराई ‘बाड़ेबंदी’ में शामिल होते आ रहे हैं।

Mar 09, 2022 / 10:06 am

Nitin Kumar

प्रतीकात्मक चित्र

प्रतीकात्मक चित्र

पांच राज्यों के चुनाव नतीजे क्या होंगे यह तो 10 मार्च को ही पता चलेगा पर एग्जिट पोल के संकेतों ने राजनीतिक दलों को चौकन्ना जरूर कर दिया है। हालांकि एग्जिट पोल को ठोस भविष्यवाणी नहीं कहा जा सकता फिर भी तमाम राजनीतिक दल बहुमत नहीं मिलने की दशा में जोड़- तोड़ की जुगत जरूर करेंगे। अब तक के अनुभव बताते हैं कि जो दल सत्ता की दौड़ में कहीं नजर नहीं आते वे भी सियासी फायदे की खातिर राजनीति में घुस आई अहम बुराई ‘बाड़ेबंदी’ में शामिल होते आ रहे हैं।
सत्ता की खातिर राजनीति इतनी पेशेवर हो जाएगी, हमारे संविधान निर्माताओं ने शायद ही इसकी कल्पना की होगी। सवाल यह है कि क्या खरीद-फरोख्त और आयाराम-गयाराम के ऐसे खेल से ही लोकतंत्र मजबूत होगा? और, सवाल यह भी कि निरंतर बाड़ेबंदी के दौर से लोकतंत्र में नैतिकता के लिए कोई जगह बचेगी अथवा नहीं। ये सवाल जितने गंभीर हैं, जवाब देने वाले उतने गंभीर नहीं लगते। यह बात सही है कि किसी भी दल को बहुमत नहीं मिल पाने की स्थिति में सरकार बनाने के लिए दूसरे दलों या निर्दलीयों को साथ लेने की अनिवार्यता हो जाती है। लेकिन सत्ता हथियाने के लिए साम-दाम-दण्ड-भेद के हथियारों का इस्तेमाल स्वस्थ लोकतंत्र के लिए कतई शुभ नहीं कहा जा सकता। ऐसा लगता है कि लोकतंत्र में नैतिकता के लिए कोई जगह बची ही नहीं। बाड़ेबंदी का दौर भी इसीलिए शुरू होता है क्योंकि जनता ने भरोसा कर जिन्हें अपना प्रतिनिधि बनाया उन पर उनकी ही पार्टी भरोसा करती नहीं दिखती। राजनीतिक पर्यटन के नाम पर बाड़ेबंदी का यह दौर पांच राज्यों के चुनाव नतीजों के ऐन पहले फिर शुरू हो जाए तो कोई अचरज नहीं होना चाहिए। क्योंकि कयास यही लगाया जा रहा है कि जहां खण्डित जनादेश मिलने का अंदेशा है वहां तमाम राजनीतिक दल सरकारों के गठन तक जीते हुए उम्मीदवारों को अपने खेमे में लाने में जुटेंगे। पांच सितारा होटलों में होने वाली इस बाड़ेबंदी को एक बार सियासी मजबूरी मान लें तो भी सत्ता की खातिर खरीद-फरोख्त की खबरें लोकतंत्र पर एक और चोट करती दिखती हैं।
पांच राज्यों के ये चुनाव ही नहीं, बल्कि स्थानीय निकायों से लेकर देश की सबसे बड़ी पंचायत तक के चुनाव खरीद-फरोख्त व बाड़ेबंदी से अछूते नहीं हैं। क्योंकि जब सत्ता हासिल करने का वक्त आता है तब राजनीतिक दलों के लिए सिद्धांत व नैतिकता कोई मायने नहीं रखते। बस एक ही मकसद होता है सत्ता की सवारी। हमारे जनप्रतिनिधि ही मतदाताओं के विश्वास पर खरे नहीं उतर रहे हों तो भला लोकतांत्रिक मूल्य जीवित रखने की उम्मीद किससे करें।

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